तेरी यादों का सिलसिला थमा कब।
इस बेरहम बाज़ार में मैं जमा कब।
तू था तो कुछ ख़ुशमिज़ाजी थी,
तू नहीं तब भी है मुझे सदमा कब।
दुनिया की चकाचौंध से सब सराबोर,
खैर मुझे भाया ही था ये मजमा कब।
अपनाया भी 'औ' ठुकराया भी तूने ही,
बस ये बता दे चला ये मुकदमा कब।
इश्क की गलियाँ अब देख-भाल ली मैंने भी,
देखना है मैं देता हूँ किसी को चकमा कब।
उसके फ़िराक में रोज़ नुक्कड़ पर चाय चलती है 'रोबिन',
नामालूम करेंगे बंद ये इंतज़ार का महकमा कब।
I am an agent of chaos and a perplexed freak !! लेकिन चंद लोग मेरे आस-पास ऐसे हैं जो मेरे लिए न केवल प्रेरणा हैं किन्तु उम्मीद की किरनें भी हैं !! बस उन्हीं को समर्पित....
Saturday, December 12, 2009
Thursday, December 10, 2009
जाम सी वो
साँझ में फलक से उतरते शबाब सी वो।
पैमाने के कोर से छलकती शराब सी वो।
अब तक सोचते रहे भई क्या है ज़िंदगी,
पहाड़ से इस सवाल का मुकम्मल जवाब सी वो।
शहज़ादी कहो या ग़ज़ल तब भी क्या तारीफ़ हुई,
पढो तो बस खिलखिला उठो ऐसी किताब सी वो।
धड़कनों को नशा सा चढ़ने लगता है झलक भर पे,
ठहरे बुलबुले सी नाज़ुक, मासूम आदाब सी वो।
जो हम कभी थे अब हम वो ना रहे 'रोबिन',
जब से जर्रे-२ में समा गई इंकलाब सी वो।
उसकी छम-छम
चुपचाप रात का धीमा शोर सुना मैंने।
शोर के तागों से उसको बुना मैंने।
इठलाती सी बुनावट उधेड़ गगन पहुँची,
ये बांकपन भी कमाल का चुना मैंने।
पायल के तरानों से उसकी बँधा मैं,
ये अपहरण आज ही समझा औ गुना मैंने।
ख़ुद को भले एक पल भी न दिया हो अच्छे से,
उसके लिए कर दिया अपना वक्त दुगुना मैंने।
पिछले माघ जाना उसे ठण्ड ज्यादा लगती है,
इस फागुन तक रखा है पानी गुनगुना मैंने।
चौपाल पे सुना की प्रेम मुश्किल भरी राह है,
वो क्या मिली दुनिया को कर दिया अनसुना मैंने।
शोर के तागों से उसको बुना मैंने।
इठलाती सी बुनावट उधेड़ गगन पहुँची,
ये बांकपन भी कमाल का चुना मैंने।
पायल के तरानों से उसकी बँधा मैं,
ये अपहरण आज ही समझा औ गुना मैंने।
ख़ुद को भले एक पल भी न दिया हो अच्छे से,
उसके लिए कर दिया अपना वक्त दुगुना मैंने।
पिछले माघ जाना उसे ठण्ड ज्यादा लगती है,
इस फागुन तक रखा है पानी गुनगुना मैंने।
चौपाल पे सुना की प्रेम मुश्किल भरी राह है,
वो क्या मिली दुनिया को कर दिया अनसुना मैंने।
Tuesday, December 1, 2009
मजबूर इश्क
मेरा दिल तेरे इश्क में भले मजबूर सही।
दौलत के हाथों बिकना पर मुझे मंजूर नहीं।
ये दुनिया गर अपनों का ऐसे इम्तेहां लेती है,
नहीं चाहिए कोई, यहाँ से ले चल दूर कहीं।
तू हो और जरूरी असबाब हो जीने को,
फ़िर ना आसमां चाहिए 'रोबिन' ना जमीं।
मरने के बाद कुछ नसीब होता हो तो तू हो,
न किस्मत चाहिए न जन्नत की दिलकशीं।
दौलत के हाथों बिकना पर मुझे मंजूर नहीं।
ये दुनिया गर अपनों का ऐसे इम्तेहां लेती है,
नहीं चाहिए कोई, यहाँ से ले चल दूर कहीं।
तू हो और जरूरी असबाब हो जीने को,
फ़िर ना आसमां चाहिए 'रोबिन' ना जमीं।
मरने के बाद कुछ नसीब होता हो तो तू हो,
न किस्मत चाहिए न जन्नत की दिलकशीं।
Saturday, November 28, 2009
आरज़ू
जब तलक मौत सर नहीं आती।
बन्दे को ज़िन्दगी नज़र नहीं आती।
सोचो तो अँधेरा भी वरदान है,
अँधेरा ना हो तो सहर नहीं आती।
वो शमा रात को शराफत जलाती है,
सुबह तक उसकी ख़बर नहीं आती।
रोज़ बिकते हैं ईमान बाज़ार में,
शर्म होती है मगर नहीं आती।
एक लड़की है प्यार भी करती है,
कहती है मिलने को पर नहीं आती।
चाँदनी सी बिखरी है आसमां में मेरी चाहत,
कभी मेरे लिए क्यूँ वो उतर नहीं आती।
सँवरती है कहीं कोई अनजानी मेरे लिए,
बस उसकी खुशबू मुझ तक उड़कर नहीं आती।
किसी से बेपनाह मुहब्बत उसकी इबादत है,
बन्दे को ज़िन्दगी नज़र नहीं आती।
सोचो तो अँधेरा भी वरदान है,
अँधेरा ना हो तो सहर नहीं आती।
वो शमा रात को शराफत जलाती है,
सुबह तक उसकी ख़बर नहीं आती।
रोज़ बिकते हैं ईमान बाज़ार में,
शर्म होती है मगर नहीं आती।
एक लड़की है प्यार भी करती है,
कहती है मिलने को पर नहीं आती।
चाँदनी सी बिखरी है आसमां में मेरी चाहत,
कभी मेरे लिए क्यूँ वो उतर नहीं आती।
सँवरती है कहीं कोई अनजानी मेरे लिए,
बस उसकी खुशबू मुझ तक उड़कर नहीं आती।
किसी से बेपनाह मुहब्बत उसकी इबादत है,
उसको क्या जानोगे ये इबादत अगर नहीं आती।
तुझे पाना है तो तेरे दिल को छूना पड़ेगा 'रोबिन',
क्यूँकि मंजिल राही तक चलकर नहीं आती।
Saturday, November 14, 2009
आशिक और तवायफ
इस शाम को अब क्या तोहमत दूँ,
उसे रूठकर जाते किसने देखा।
हम भी नशे में, जहाँ भी अधखुला था
अकेली थी शाम उसको जाते जिसने देखा।
लोग कहते हैं उसकी फितरत माकूल नहीं
बस मैंने नकारा बाकी
बदनाम गलियों में उसे सबने देखा।
वो जिस्म दिखाकर पेट पालती है,
ये माजरा नहीं किसी ने देखा।
तवायफ है, जिस्म दिखाना लाज़मी है
उन सब शरीफों के अदब ने देखा।
किसी ने कान में डाला
उसकी वफ़ा का क्या भरोसा
सबकी है वो , ये सबने देखा।
मेरी गोद में जब वो दिनभर की थकान सुनाती है
उन भरी-भरी आंखों की अदा को बस हमने देखा।
आलम उसके थिरकने के हुनर को खरीदता है,
मैं सलाम करता हूँ उसके बेचने के अंदाज़ को,
हुस्न पे लगे छीटों को पूरे आलम ने देखा।
रूह की पाकीज़गी को सिर्फ़ सनम ने देखा।
ये फर्क मुझे मालूम है
मैं क्यूँ किसी को समझाता फिरूं,
जिसने जैसा सोचा, वैसा उसने देखा।
ठुकराते हैं उसे दिन की शर्मिंदगी में,
हासिल चाहते हैं सब रात की आवारगी में,
दोगलापन हर एक ने चाहा हर एक ने देखा।
मुझे आशिक नाम देकर अलग कर दिया
जब दिन में मूरत और रात में खुदा
उसे मेरे मज़हब ने देखा।-2
उसे रूठकर जाते किसने देखा।
हम भी नशे में, जहाँ भी अधखुला था
अकेली थी शाम उसको जाते जिसने देखा।
लोग कहते हैं उसकी फितरत माकूल नहीं
बस मैंने नकारा बाकी
बदनाम गलियों में उसे सबने देखा।
वो जिस्म दिखाकर पेट पालती है,
ये माजरा नहीं किसी ने देखा।
तवायफ है, जिस्म दिखाना लाज़मी है
उन सब शरीफों के अदब ने देखा।
किसी ने कान में डाला
उसकी वफ़ा का क्या भरोसा
सबकी है वो , ये सबने देखा।
मेरी गोद में जब वो दिनभर की थकान सुनाती है
उन भरी-भरी आंखों की अदा को बस हमने देखा।
आलम उसके थिरकने के हुनर को खरीदता है,
मैं सलाम करता हूँ उसके बेचने के अंदाज़ को,
हुस्न पे लगे छीटों को पूरे आलम ने देखा।
रूह की पाकीज़गी को सिर्फ़ सनम ने देखा।
ये फर्क मुझे मालूम है
मैं क्यूँ किसी को समझाता फिरूं,
जिसने जैसा सोचा, वैसा उसने देखा।
ठुकराते हैं उसे दिन की शर्मिंदगी में,
हासिल चाहते हैं सब रात की आवारगी में,
दोगलापन हर एक ने चाहा हर एक ने देखा।
मुझे आशिक नाम देकर अलग कर दिया
जब दिन में मूरत और रात में खुदा
उसे मेरे मज़हब ने देखा।-2
Thursday, October 1, 2009
तेरा हो रहा हूँ
बाहों का आसरा लेकर जवां हो रहा हूँ।
लबों के लिपट जाने से धुआं हो रहा हूँ।
कहते हैं मेरा नजरिया बदल सा गया है,
नया हो रहा हूँ लेकिन कहाँ हो रहा हूँ।
किसी के आने से खुशनुमा हो चला है मौसम,
कभी मेह कभी धुंध तो कभी फिज़ां हो रहा हूँ।
मेरे पोर-पोर में महकता है तेरा अहसास,
मुझमें कहाँ नहीं है तू, सोचकर हैरां हो रहा हूँ।
बदस्तूर तेरा ख्याल मेरी नींद पर काबिज़ है,
जगा हूँ पर लगता है तेरी गोद में सो रहा हूँ।
ऐ रात यूँ ना कर ज़रा थम-थम के चल,
बाद अरसा किसी आगोश का मेहमां हो रहा हूँ।
जेब में रखा संदेसा झाँक के गुनगुनाता है,
वो आती होगी, मैं नाहक परेशां हो रहा हूँ।
यकीन मानिए क़त्ल हुआ हूँ उसकी आंखों से,
कैसे कहूं कि क्या हुआ, बस बेजुबाँ हो रहा हूँ।
आ रही है खनकती श्यामल दुपट्टा गिराए,
बेकरार दोनों हैं वो वहाँ, मैं यहाँ हो रहा हूँ।
बस दस्तखत यही कि वो नहीं तो हम भी नहीं,
समझिये उसका लिखा ख़त हूँ, ख़ुद बयां हो रहा हूँ।
लबों के लिपट जाने से धुआं हो रहा हूँ।
कहते हैं मेरा नजरिया बदल सा गया है,
नया हो रहा हूँ लेकिन कहाँ हो रहा हूँ।
किसी के आने से खुशनुमा हो चला है मौसम,
कभी मेह कभी धुंध तो कभी फिज़ां हो रहा हूँ।
मेरे पोर-पोर में महकता है तेरा अहसास,
मुझमें कहाँ नहीं है तू, सोचकर हैरां हो रहा हूँ।
बदस्तूर तेरा ख्याल मेरी नींद पर काबिज़ है,
जगा हूँ पर लगता है तेरी गोद में सो रहा हूँ।
ऐ रात यूँ ना कर ज़रा थम-थम के चल,
बाद अरसा किसी आगोश का मेहमां हो रहा हूँ।
जेब में रखा संदेसा झाँक के गुनगुनाता है,
वो आती होगी, मैं नाहक परेशां हो रहा हूँ।
यकीन मानिए क़त्ल हुआ हूँ उसकी आंखों से,
कैसे कहूं कि क्या हुआ, बस बेजुबाँ हो रहा हूँ।
आ रही है खनकती श्यामल दुपट्टा गिराए,
बेकरार दोनों हैं वो वहाँ, मैं यहाँ हो रहा हूँ।
बस दस्तखत यही कि वो नहीं तो हम भी नहीं,
समझिये उसका लिखा ख़त हूँ, ख़ुद बयां हो रहा हूँ।
कुछ विचार
ना समेट अपनी जुल्फें इनको खुला रहने दे।
बाहर गर्मी बहुत है, घटा का अहसास रहने दे।
काश दिल की आवाज़ में ऐसा असर हो जाए।
हम जिसे याद करते हैं उसको ख़बर हो जाए।
- मित्र की कलम से
बाहर गर्मी बहुत है, घटा का अहसास रहने दे।
काश दिल की आवाज़ में ऐसा असर हो जाए।
हम जिसे याद करते हैं उसको ख़बर हो जाए।
- मित्र की कलम से
मजाज़
आप खुश हुए तो ख़ुद पे भी नाज़ आया।
ज़िन्दगी और हसीनतर जीने का अंदाज़ आया।
दर्द हद से फिर बढ़ा उसके पास ना होने से ,
लगा जैसे 'रोबिन' में उतर कहीं से 'मजाज़' आया।
ज़िन्दगी और हसीनतर जीने का अंदाज़ आया।
दर्द हद से फिर बढ़ा उसके पास ना होने से ,
लगा जैसे 'रोबिन' में उतर कहीं से 'मजाज़' आया।
Wednesday, September 16, 2009
बोसा
बरसों की आवारगी ने कुछ यूँ असर किया।
किसी पे मर के ख़ुद को अब बेहतर किया।
फुरसतें पहले भी थी, अब तब्दील ये
रात कुरबां की, दिन तुझे नज़र किया।
दुनिया से अनजान तो हम हमेशा से थे,
अब आलम ये ख़ुद को ख़ुद से बेखबर किया।
वादा था कि शब् में नसीब होगा एक बोसा,
पर उन लबों का इंतज़ार हमने रातभर किया।
बज्म में अकेला होना आज जाना,
हर बार जब तुझसे फासले पर सफर किया।
अब दिल तेरा, धड़कन तू और जिंदगी तुझसे,
मर जायेंगे तूने वस्ल से इनकार अगर किया।
किसी पे मर के ख़ुद को अब बेहतर किया।
फुरसतें पहले भी थी, अब तब्दील ये
रात कुरबां की, दिन तुझे नज़र किया।
दुनिया से अनजान तो हम हमेशा से थे,
अब आलम ये ख़ुद को ख़ुद से बेखबर किया।
वादा था कि शब् में नसीब होगा एक बोसा,
पर उन लबों का इंतज़ार हमने रातभर किया।
बज्म में अकेला होना आज जाना,
हर बार जब तुझसे फासले पर सफर किया।
अब दिल तेरा, धड़कन तू और जिंदगी तुझसे,
मर जायेंगे तूने वस्ल से इनकार अगर किया।
Monday, August 24, 2009
Sunday, August 23, 2009
नाज़नीं पल
पल में बनता हूँ, पल में बिखरता हूँ|
तेरे प्यार में हर रोज़ सँवरता हूँ।
ये मासूम सा मुखड़ा,
ये कमसिन अदाएँ,
यूँ तिरछी चितवन से एकटक निहारना
वो शरमाके भवें उठाना,
नाक सिकोड़ना उसका छोटी सी चुटकी पे,
गरदन झटकाना हलकी झपकी पे,
उँगलियों से अपनी मेरी हथेली कुरेदना,
ठंडी बयार में ख़ुद को समेटना,
गागर से छलकते ज्यों उसके बोल,
रुखसारों पे लाली लिए
बांसुरी सी सुरीली वो गोल-मटोल,
छू ना हो जाए ये जन्नत कहीं
सो पलकें गिराने से भी डरता हूँ !
इसी तरह तू मुझ पर बरसती है घटा सी,
और मैं यूँ ही तुझमें बहकता हूँ।
पल में तरसता हूँ, पल में महकता हूँ !
तेरे प्यार में हर रोज़ संवरता हूँ !!-२
.
तेरे प्यार में हर रोज़ सँवरता हूँ।
ये मासूम सा मुखड़ा,
ये कमसिन अदाएँ,
यूँ तिरछी चितवन से एकटक निहारना
वो शरमाके भवें उठाना,
नाक सिकोड़ना उसका छोटी सी चुटकी पे,
गरदन झटकाना हलकी झपकी पे,
उँगलियों से अपनी मेरी हथेली कुरेदना,
ठंडी बयार में ख़ुद को समेटना,
गागर से छलकते ज्यों उसके बोल,
रुखसारों पे लाली लिए
बांसुरी सी सुरीली वो गोल-मटोल,
छू ना हो जाए ये जन्नत कहीं
सो पलकें गिराने से भी डरता हूँ !
इसी तरह तू मुझ पर बरसती है घटा सी,
और मैं यूँ ही तुझमें बहकता हूँ।
पल में तरसता हूँ, पल में महकता हूँ !
तेरे प्यार में हर रोज़ संवरता हूँ !!-२
.
Monday, August 17, 2009
ख्वाहिश या दर्द
यादें तेरी सिरहाने रख के क्या सोये ,
नींद बाद मुद्दत के हमको खालिस लगी।
एक-दो अश्क ढुलकते रहे तन्हाइयों में,
तेरे सामने रोये तो बारिश लगी।
फैसला तेरा हो भले हमें ठुकराने का,
पर मुझे तो ये ज़माने की साजिश लगी।
लाल जोड़े में देखा जो तुझे आज शाम,
ना जाने दिल को ये कैसी ख्वाहिश लगी।
तू मेरी थी ना, फ़िर क्यूँ कल तेरी आंखों में,
वो नमी किसी और की सिफारिश लगी।
भूलूँ कैसे 'रोबिन' कि तू किसी और का नूर हो गया,
बेशक अधूरी हो,पर मुहब्बत अपनी नाजिश लगी।
नींद बाद मुद्दत के हमको खालिस लगी।
एक-दो अश्क ढुलकते रहे तन्हाइयों में,
तेरे सामने रोये तो बारिश लगी।
फैसला तेरा हो भले हमें ठुकराने का,
पर मुझे तो ये ज़माने की साजिश लगी।
लाल जोड़े में देखा जो तुझे आज शाम,
ना जाने दिल को ये कैसी ख्वाहिश लगी।
तू मेरी थी ना, फ़िर क्यूँ कल तेरी आंखों में,
वो नमी किसी और की सिफारिश लगी।
भूलूँ कैसे 'रोबिन' कि तू किसी और का नूर हो गया,
बेशक अधूरी हो,पर मुहब्बत अपनी नाजिश लगी।
Monday, August 10, 2009
मेहमान मेरा
शहनाई सी बजती है रात भर कानों में,
एक चेहरा उभर आता है शब् के पैमानों में।
बेवक्त तारे गिने, गूंथकर देखा जिंदगी को !
कमी रही एक की, ढूंढें ना मिला सौ आसमानों में !!
आंसुओं से नमकीन है तकिये का गिलाफ,
ध्यान से चख ना ले कोई, गिन ले दीवानों में !!
मिलने वालों की दस्तक दिन भर इस दर पे,
एक मेहमान मेरा भी हो कभी इन् मेहमानों में !!
तनिक सी मदद को अहसान कर लेता है वो,
मेरे अनकहे इश्क को भी शामिल कर ले अहसानों में !!
हजारों मस्ताने हैं इस शमा के, क्या हुआ जो ,
एक परवाना और जल गया इतने परवानों में !!
एकतरफा उल्फत का अंजाम उसे तय करना है,
इनकार हुआ, तो दिल भी बाँध लेंगे रखे सामानों में !!
वो मेरा बनेगा ये भरम टूटा है आज 'रोबिन' ,
शायद कहीं कोई सिफर रह गया दिल के अरमानों में !!
एक चेहरा उभर आता है शब् के पैमानों में।
बेवक्त तारे गिने, गूंथकर देखा जिंदगी को !
कमी रही एक की, ढूंढें ना मिला सौ आसमानों में !!
आंसुओं से नमकीन है तकिये का गिलाफ,
ध्यान से चख ना ले कोई, गिन ले दीवानों में !!
मिलने वालों की दस्तक दिन भर इस दर पे,
एक मेहमान मेरा भी हो कभी इन् मेहमानों में !!
तनिक सी मदद को अहसान कर लेता है वो,
मेरे अनकहे इश्क को भी शामिल कर ले अहसानों में !!
हजारों मस्ताने हैं इस शमा के, क्या हुआ जो ,
एक परवाना और जल गया इतने परवानों में !!
एकतरफा उल्फत का अंजाम उसे तय करना है,
इनकार हुआ, तो दिल भी बाँध लेंगे रखे सामानों में !!
वो मेरा बनेगा ये भरम टूटा है आज 'रोबिन' ,
शायद कहीं कोई सिफर रह गया दिल के अरमानों में !!
Tuesday, June 23, 2009
राधा
राधा ख़ुद खनकती है, कन्हैया की बांसुरी पर !
भव-पालनहार भी फ़िदा है, प्रेम की माधुरी पर !!
प्रेम सतत, प्रेम अनंत, प्रेम लगन, प्रेम भजन !
और प्रेम वजन है, ठाकुर की ठाकुरी पर !!
प्रेम-पगी उनींदी राधा रात न देखे और न दिन,
क्या कदम्ब, स्वयं देव भी रहे चाकरी पर !!
कृष्ण की बने न बने, परवाह किसे इस पर्व में !
प्रेम-रण में भले हारी वो, है रण-बांकुरी पर !!
विरह की पीड़ा ज़ज्ब है 'रोबिन', राधा के अनुराग में !
कामना यही सामने माधव रहें, साँस आखरी पर !!
भव-पालनहार भी फ़िदा है, प्रेम की माधुरी पर !!
प्रेम सतत, प्रेम अनंत, प्रेम लगन, प्रेम भजन !
और प्रेम वजन है, ठाकुर की ठाकुरी पर !!
प्रेम-पगी उनींदी राधा रात न देखे और न दिन,
क्या कदम्ब, स्वयं देव भी रहे चाकरी पर !!
कृष्ण की बने न बने, परवाह किसे इस पर्व में !
प्रेम-रण में भले हारी वो, है रण-बांकुरी पर !!
विरह की पीड़ा ज़ज्ब है 'रोबिन', राधा के अनुराग में !
कामना यही सामने माधव रहें, साँस आखरी पर !!
Monday, June 22, 2009
लिखता हूँ तुझे
सच है कि मैं किस्से लिखता हूँ।
दिलों के बिखरे हुए हिस्से लिखता हूँ।
मुजस्समा हूँ, बँधे हुए हाथ लिए ,
इतिहास फ़िर न जाने किससे लिखता हूँ।
ठूंठ बचे हैं पुरानी फसलों के यहाँ,
अश्कों से सींचे कुछ बिस्से लिखता हूँ।
तू ही मेरा है, तू ही बेगाना है ,
ग़म अपने, खुशी तेरे हिस्से लिखता हूँ।
टकराती हैं तेरी यादें, दिल के झीने से ,
यही वो स्याही, जिंदगी जिससे लिखता हूँ।
रो लिया जो जुदाई में, मिटा दिया सब ,
खुश हुआ हूँ तो तुझे फिरसे लिखता हूँ ।
दिलों के बिखरे हुए हिस्से लिखता हूँ।
मुजस्समा हूँ, बँधे हुए हाथ लिए ,
इतिहास फ़िर न जाने किससे लिखता हूँ।
ठूंठ बचे हैं पुरानी फसलों के यहाँ,
अश्कों से सींचे कुछ बिस्से लिखता हूँ।
तू ही मेरा है, तू ही बेगाना है ,
ग़म अपने, खुशी तेरे हिस्से लिखता हूँ।
टकराती हैं तेरी यादें, दिल के झीने से ,
यही वो स्याही, जिंदगी जिससे लिखता हूँ।
रो लिया जो जुदाई में, मिटा दिया सब ,
खुश हुआ हूँ तो तुझे फिरसे लिखता हूँ ।
Friday, May 29, 2009
वो पल
किसी और से क्या हो ख़ुद ही से रंजिश है।
आज फ़िर लहरों पे घर बनाने की ख्वाहिश है।
साथ ना होकर भी हर पल आस-पास है वो,
मिल जाए एक बार बस क्यूँकर गुजारिश है।
भरम होता है घटा का उसकी खिलखिलाहट पर,
चंद अल्फाज़ उसके जैसे पहले प्यार की बारिश है।
देखूँ तो बरबस उसमें रब आता है नज़र,
हो न हो ये उल्फत रब की साजिश है।
छू लूँगा पलकों को जिस पल बिखर जाऊँगा,
वजह कि मैं धुंआ हूँ, वो माह-ऐ-महविश है।
क्या बात हो 'रोबिन' गर वो हमसफ़र बन जाए,
मानिए फ़िर ये ज़िन्दगी उसकी नवाजिश है।
आज फ़िर लहरों पे घर बनाने की ख्वाहिश है।
साथ ना होकर भी हर पल आस-पास है वो,
मिल जाए एक बार बस क्यूँकर गुजारिश है।
भरम होता है घटा का उसकी खिलखिलाहट पर,
चंद अल्फाज़ उसके जैसे पहले प्यार की बारिश है।
देखूँ तो बरबस उसमें रब आता है नज़र,
हो न हो ये उल्फत रब की साजिश है।
छू लूँगा पलकों को जिस पल बिखर जाऊँगा,
वजह कि मैं धुंआ हूँ, वो माह-ऐ-महविश है।
क्या बात हो 'रोबिन' गर वो हमसफ़र बन जाए,
मानिए फ़िर ये ज़िन्दगी उसकी नवाजिश है।
Thursday, May 28, 2009
एक लड़की एक पल
किस्से कहानियाँ मुहब्बत आशिकी
वफ़ा दीवानगी ज़ज्बात बंदगी !
शब्द हैं शायद शब्द ही होंगे। मैंने बस इन्ही लफ्जों को अपने आस-पास बिखरते देखा, बिकते देखा, तड़पते देखा, ठिठुरते देखा। लगा जैसे दुनिया कहीं ना कहीं सही है, ग़लत होती तो ये मंज़र यूँ निगाहों से बावस्ता ना होते ! प्रेम या आकर्षण, दुविधा में स्वयं प्रेम के पुरोधा और प्रेमी, चाहतों के मेले लगाए हुए खानाबदोश जैसे!
मगर मेरी निगाहों का देखा, मेरे पेशाने की रेखाओं को नही भाया। उनकी योजना कुछ जुदा थी, अलहदा थी। इन सभी मंज़रों की फेहरिस्त में से एक आवाज़ मेरे लिए इतनी लाजिम हो जायेगी, इसका इल्म मुझे तो क्या मेरे
अवचेतन मस्तिष्क को भी नहीं था।
अतः मेरी सभी अवधारणाओं एवं गलतफहमियों का पटाक्षेप इसी वर्ष के उस महीने से प्रारंभ हुआ जिस महीने में होलिका दहन किया जाता है। कहने का तात्पर्य है कि उसी समय अंतराल में हमारे मन् में उपस्थित सभी प्रकार के भ्रमों की सामूहिक होलिका भी जल गई। वो अब तक मेरे सिर्फ़ एक Internet पर कुछ बातें और कुछ समय बाद एक आवाज़ के रूप में सामने थी। समय बहुत कारिस्तान होता है जनाब, ये समझ पाते उससे पहले ही वो आवाज़ एक आवाज़ से कहीं अधिक हो गई। धीरे-धीरे वो आवाज़ जेहन में इस तरह समाने लगी , लगा बस सुनता रहूँ और ये रात कभी ख़त्म ना हो।वफ़ा दीवानगी ज़ज्बात बंदगी !
शब्द हैं शायद शब्द ही होंगे। मैंने बस इन्ही लफ्जों को अपने आस-पास बिखरते देखा, बिकते देखा, तड़पते देखा, ठिठुरते देखा। लगा जैसे दुनिया कहीं ना कहीं सही है, ग़लत होती तो ये मंज़र यूँ निगाहों से बावस्ता ना होते ! प्रेम या आकर्षण, दुविधा में स्वयं प्रेम के पुरोधा और प्रेमी, चाहतों के मेले लगाए हुए खानाबदोश जैसे!
मगर मेरी निगाहों का देखा, मेरे पेशाने की रेखाओं को नही भाया। उनकी योजना कुछ जुदा थी, अलहदा थी। इन सभी मंज़रों की फेहरिस्त में से एक आवाज़ मेरे लिए इतनी लाजिम हो जायेगी, इसका इल्म मुझे तो क्या मेरे
अवचेतन मस्तिष्क को भी नहीं था।
मेरे उस महज़बीन को क्या नाम देकर यहाँ लिखूं, थोड़ा सा असमंजस में हूँ। चलिए फ़िर भी एक नाम दे देता हूँ 'किशमिश'। मुझे पता है ये नाम सुनकर थोडी सी हँसी या मुस्कान आ जाती है किंतु बस नाम है तो है । किशमिश की तारीफ़ और उसकी qualities की फेहरिस्त थोडी लम्बी है तथा आप जानते ही हैं कि ऐसा होना लाज़मी है। भाई प्रेम है और प्रेम भी हम नाचीज़ का है।
क्या लिखें अब, समझ नही पा रहा हूँ क्यूंकि प्रेम कि इस राह पर कुछ ही कदम चला हूँ। लेकिन इतना कह सकता हूँ कि वो आवाज़ और वो चेहरा अब जरूरत बनता जा रहा है और बस यही दुआ रहती है उसके चेहरे पे मुस्कराहट कि एक लकीर हर पल खिंची रहे। उसके सज़दे में अपना ही एक शेर कहना चाहूंगा :-
उसकी आँखें देखकर अब पीने को जी नहीं करता ।
वो दूर है इतनी, बगैर उसके जीने को जी नहीं करता !!
बाकी बातें अगली बार समय मिलने पर.....
क्या लिखें अब, समझ नही पा रहा हूँ क्यूंकि प्रेम कि इस राह पर कुछ ही कदम चला हूँ। लेकिन इतना कह सकता हूँ कि वो आवाज़ और वो चेहरा अब जरूरत बनता जा रहा है और बस यही दुआ रहती है उसके चेहरे पे मुस्कराहट कि एक लकीर हर पल खिंची रहे। उसके सज़दे में अपना ही एक शेर कहना चाहूंगा :-
उसकी आँखें देखकर अब पीने को जी नहीं करता ।
वो दूर है इतनी, बगैर उसके जीने को जी नहीं करता !!
बाकी बातें अगली बार समय मिलने पर.....
Sunday, April 12, 2009
नवीन प्रसून
अर्जियां सारी मैं चेहरे पे लिख के लाया हूँ,
मैं क्या बताऊँ तुम ख़ुद ही समझ लो ना.......मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला।
प्रसून जोशी के शब्द भारतीय फिल्मी गीतों में नवीनता की सुगंध लिए प्रतीत होते है। मुझे लगा था शायद गुलज़ार और जावेद अख्तर के बाद ये गीतों की परम्परा नष्ट हो जाए, वो परम्परा जिसकी श्रृंखलाबद्ध कड़ियों में साहिर, हसरत जैपुरी, प्रदीप, शैलेन्द्र, राजेंद्र कृष्ण, मजरूह इत्यादि जैसे रचनाकार शुमार हैं, यकीनन इन् दो आखिरी महानुभावो के बाद शायद ठहर जाती। किंतु प्रसून और उनके समकालीन कुछ और गीतकार इस बात की आशा दिलाते है की हिन्दी गीतों की वो पुरानी परम्परा सतत जारी रहेगी। यूँ तो मैं नए प्रयोगों का पक्षधर हूँ लेकिन बुनियाद को change करने का मैं कायल नहीं।
एक और पक्ष जिसकी तरफ़ मेरा ध्यान हमेशा जाता रहता है वो यह की पुराने गानों अथवा संगीत की तुलना आज के गीत-संगीत के साथ करना लाज़मी नहीं है। परिवर्तन के तौर पर देखा जाए तो ये संगीत अपनी स्थिति पर कायम रहने का अधिकारी है। एक प्रकार से गीत-संगीत विचार, आचार, संस्कृति एवं सोच को परिलक्षित करते हैं और आज के दौर में प्रचलित संगीत एवं गीतों के बोल या उनकी भाषा किसी भी लिहाज़ से ग़लत नही है। अतः ये कहना कतई ग़लत नहीं होगा कि वर्तमान की गीत-भाषा को को परिशोधित करने में ये नवीन गीतकार एक सीमा तक सफल रहे हैं। मैं आजकल पुनः गानों को चाव से सुनने लगा हूँ।
बाकी बातें अगली बार समय मिलने पर.....
मैं क्या बताऊँ तुम ख़ुद ही समझ लो ना.......मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला।
प्रसून जोशी के शब्द भारतीय फिल्मी गीतों में नवीनता की सुगंध लिए प्रतीत होते है। मुझे लगा था शायद गुलज़ार और जावेद अख्तर के बाद ये गीतों की परम्परा नष्ट हो जाए, वो परम्परा जिसकी श्रृंखलाबद्ध कड़ियों में साहिर, हसरत जैपुरी, प्रदीप, शैलेन्द्र, राजेंद्र कृष्ण, मजरूह इत्यादि जैसे रचनाकार शुमार हैं, यकीनन इन् दो आखिरी महानुभावो के बाद शायद ठहर जाती। किंतु प्रसून और उनके समकालीन कुछ और गीतकार इस बात की आशा दिलाते है की हिन्दी गीतों की वो पुरानी परम्परा सतत जारी रहेगी। यूँ तो मैं नए प्रयोगों का पक्षधर हूँ लेकिन बुनियाद को change करने का मैं कायल नहीं।
एक और पक्ष जिसकी तरफ़ मेरा ध्यान हमेशा जाता रहता है वो यह की पुराने गानों अथवा संगीत की तुलना आज के गीत-संगीत के साथ करना लाज़मी नहीं है। परिवर्तन के तौर पर देखा जाए तो ये संगीत अपनी स्थिति पर कायम रहने का अधिकारी है। एक प्रकार से गीत-संगीत विचार, आचार, संस्कृति एवं सोच को परिलक्षित करते हैं और आज के दौर में प्रचलित संगीत एवं गीतों के बोल या उनकी भाषा किसी भी लिहाज़ से ग़लत नही है। अतः ये कहना कतई ग़लत नहीं होगा कि वर्तमान की गीत-भाषा को को परिशोधित करने में ये नवीन गीतकार एक सीमा तक सफल रहे हैं। मैं आजकल पुनः गानों को चाव से सुनने लगा हूँ।
बाकी बातें अगली बार समय मिलने पर.....
Saturday, April 4, 2009
एक राकेश ऐसा भी
उसकी आँखें देखकर अब पीने को जी नहीं करता ।
वो दूर है इतनी, बगैर जालिम के जीने को जी नहीं करता !!
भले वो आती है मुझसे मिलने दो-चार घड़ी भर के लिए,
प्यास उतनी ही रहती, ये दरिया कभी नहीं भरता !!
पहरों इंतज़ार उसका और शब् में वो उतरती मुस्कुराती,
क्या है कि जो मेरे भीतर इतने सितम के बाद भी नहीं मरता !!
अब इसे इश्क कहूं कि दीवानापन या आशिकी नाम दूँ,
वो गर मेरे साथ है तो फ़िर मैं इस जहाँ से भी नहीं डरता !!
दो पल का साथ उसका एक जिन्दगी के बराबर मान राकेश,
उससे जुदा होने के ग़म के सामने अब कोई और दर्द नहीं ठहरता !!
वो दूर है इतनी, बगैर जालिम के जीने को जी नहीं करता !!
भले वो आती है मुझसे मिलने दो-चार घड़ी भर के लिए,
प्यास उतनी ही रहती, ये दरिया कभी नहीं भरता !!
पहरों इंतज़ार उसका और शब् में वो उतरती मुस्कुराती,
क्या है कि जो मेरे भीतर इतने सितम के बाद भी नहीं मरता !!
अब इसे इश्क कहूं कि दीवानापन या आशिकी नाम दूँ,
वो गर मेरे साथ है तो फ़िर मैं इस जहाँ से भी नहीं डरता !!
दो पल का साथ उसका एक जिन्दगी के बराबर मान राकेश,
उससे जुदा होने के ग़म के सामने अब कोई और दर्द नहीं ठहरता !!
वो तीसरी नज़र की चाहत
मैं मैं और बस मैं....arrogant and a guy with attitude. मेरी पहचान, जब से मैंने इस महाविद्यालय में कदम रखा.
आज तलक पहचान वही, केवल थोडा सा अंतर आया है परिभाषित शब्दों में, arrogant समभ्व्तः नहीं रहा, किन्तु guy
with attitude अभी भी हूँ। 10+2 के उस इंसान में और bitsian बन्दे में ज़मीन-आसमान के मध्य जितनी दूरी हो चली है।
वो मासूम सा बच्चा आज मासूमियत की केंचुली कब की त्याग चुका है।
चलिए आते है इस प्रसंग के शीर्षक की और..
मेरे 5 वर्षों के bits-pilani कार्यकाल में वो एक ऐसे अध्याय की भाँति है, जिसके मिटा देने पर हो सकता है मैं स्वयम ही अपना
कार्यकाल याद न रख पाऊं। अब आप पूछेंगे की वो का कोई नाम या अता-पता तो होगा, है अच्छा खासा है परन्तु उसका ज़िक्र अगर
यहाँ केवल सूचक की तरह लिया जाए तो अधिक उपयुक्त होगा।
उसे सबसे पहले मैंने bits में एक जनरल मीटिंग के दौरान देखा था। तब शायद उसका सौन्दर्य संभवतः मुझे उतना असाधारण नहीं लगा।
वो एक आम लड़की की तरह थी। वही बाल सुलझाना, बारीकी से देखना, सोच के बोलना, हल्का सा make-up, साधारण से वस्त्र और
सादगी भरा चेहरा. कुछ बातें, वो भी औपचारिक| मीटिंग समाप्त और मेरी भंगिमा पुराने जैसी, अपने ठिकाने की तरफ कदम
बढाते हुए हम चले आये| कभी कभार ज़रा सी चर्चा हुई तो उनका नाम भी आया लेकिन कोई हलचल जैसी वस्तु वहाँ
नहीं हुई | दिन गुजरते गए..रात सवेरे में तब्दील होती रही..महीने साल से प्यार करने निकल पड़े |
अब आते है द्वितीय नज़र पर...... ये नज़र कई श्रृंखलाओं का समागम है अर्थात मात्र एक मुलाकात नहीं बल्कि
अनेक का संगम है | जैसे जैसे हम उनकी विभिन्न कलाओं से परिचित होते गए, वैसे वैसे हमारे मानस पटल पर
वो परत सी चढ़ती गयी | यकीनन अभी परत अत्यंत पतली रही होगी अन्यथा हम इतना समय व्यर्थ ना गवां देते | वो कलाकार,
चित्रकार, पहेलिकार और ना जाने किन किन रूपों में हमसे मुखातिब होती रही और सच मानिए अभी भी कमबख्त परत पूर्ववत रही |
क्यूँकि इंसान के रूप में सामना ही परत की मोटाई को नया आकार दे सकता था और हुआ भी यही......
तीसरी नज़र...
शुरुआत थी तृतीय वर्ष की | हम पर उत्तर दायित्व एक बेहतरीन शाम आयोजित करवाने का था तथा इस भारी भरकम
काम के लिए मुझे सभी सहयोगियों का साथ चाहिए था | हम जिस संगठन के मुखिया थे उस नाते ये हमारी जिम्मेदारी थी कि हम सबको
साथ लेकर एक अद्भुत शाम प्रस्तुत करें | वो उन सदस्यों में से थी जिनकी भागीदारी उनकी प्रतिभा के अनुरूप नहीं थी | अतः उन्हें संगठन के करीब
लाना और उससे एक सक्रिय सदस्य की भाँति कार्य करवाना , संभवतः ये दोनों रुचिकर साथ ही साथ दुष्कर कार्य, हमें उनके उन सभी
पहलुओं के नज़दीक ले आये जिनसे हम कदापि वाकिफ नहीं थे |
बस वो सभी मीटिंग्स एवं कार्यक्रम के दौरान की बातें, उनके प्रति एक लगाव उत्पन्न कर गयी |
वो लगाव कब पसंद, वो पसंद कब इच्छा तथा वो इच्छा कब प्रेम में बदली , पता ही नहीं चला |
प्रेम जैसी परिपाटी से हम आज भी अनभिज्ञ है और हम सभी के सामने ये दावा भी करते है कि हम प्रेम करना ही
नहीं चाहते, परन्तु ये सत्य है की वो मेरे इस जीवन पुस्तक में एक अनूठे अध्याय की तरह है | मैं इस अध्याय को अभी तक
पढ़ नहीं पाया हूँ.....समझना तो परे है !
मेरी तीसरी नज़र की चाहत आज तक केवल वाक्य ही है क्योंकि मैं उसे ये बताने का साहस नहीं कर पाया हूँ की वो मेरे लिए क्या है और उससे जो सीखा है वो किसी और पे लुटा पाया तो खुशनसीबी होगी ||
- एक अबूझ आशिक
आज तलक पहचान वही, केवल थोडा सा अंतर आया है परिभाषित शब्दों में, arrogant समभ्व्तः नहीं रहा, किन्तु guy
with attitude अभी भी हूँ। 10+2 के उस इंसान में और bitsian बन्दे में ज़मीन-आसमान के मध्य जितनी दूरी हो चली है।
वो मासूम सा बच्चा आज मासूमियत की केंचुली कब की त्याग चुका है।
चलिए आते है इस प्रसंग के शीर्षक की और..
मेरे 5 वर्षों के bits-pilani कार्यकाल में वो एक ऐसे अध्याय की भाँति है, जिसके मिटा देने पर हो सकता है मैं स्वयम ही अपना
कार्यकाल याद न रख पाऊं। अब आप पूछेंगे की वो का कोई नाम या अता-पता तो होगा, है अच्छा खासा है परन्तु उसका ज़िक्र अगर
यहाँ केवल सूचक की तरह लिया जाए तो अधिक उपयुक्त होगा।
उसे सबसे पहले मैंने bits में एक जनरल मीटिंग के दौरान देखा था। तब शायद उसका सौन्दर्य संभवतः मुझे उतना असाधारण नहीं लगा।
वो एक आम लड़की की तरह थी। वही बाल सुलझाना, बारीकी से देखना, सोच के बोलना, हल्का सा make-up, साधारण से वस्त्र और
सादगी भरा चेहरा. कुछ बातें, वो भी औपचारिक| मीटिंग समाप्त और मेरी भंगिमा पुराने जैसी, अपने ठिकाने की तरफ कदम
बढाते हुए हम चले आये| कभी कभार ज़रा सी चर्चा हुई तो उनका नाम भी आया लेकिन कोई हलचल जैसी वस्तु वहाँ
नहीं हुई | दिन गुजरते गए..रात सवेरे में तब्दील होती रही..महीने साल से प्यार करने निकल पड़े |
अब आते है द्वितीय नज़र पर...... ये नज़र कई श्रृंखलाओं का समागम है अर्थात मात्र एक मुलाकात नहीं बल्कि
अनेक का संगम है | जैसे जैसे हम उनकी विभिन्न कलाओं से परिचित होते गए, वैसे वैसे हमारे मानस पटल पर
वो परत सी चढ़ती गयी | यकीनन अभी परत अत्यंत पतली रही होगी अन्यथा हम इतना समय व्यर्थ ना गवां देते | वो कलाकार,
चित्रकार, पहेलिकार और ना जाने किन किन रूपों में हमसे मुखातिब होती रही और सच मानिए अभी भी कमबख्त परत पूर्ववत रही |
क्यूँकि इंसान के रूप में सामना ही परत की मोटाई को नया आकार दे सकता था और हुआ भी यही......
तीसरी नज़र...
शुरुआत थी तृतीय वर्ष की | हम पर उत्तर दायित्व एक बेहतरीन शाम आयोजित करवाने का था तथा इस भारी भरकम
काम के लिए मुझे सभी सहयोगियों का साथ चाहिए था | हम जिस संगठन के मुखिया थे उस नाते ये हमारी जिम्मेदारी थी कि हम सबको
साथ लेकर एक अद्भुत शाम प्रस्तुत करें | वो उन सदस्यों में से थी जिनकी भागीदारी उनकी प्रतिभा के अनुरूप नहीं थी | अतः उन्हें संगठन के करीब
लाना और उससे एक सक्रिय सदस्य की भाँति कार्य करवाना , संभवतः ये दोनों रुचिकर साथ ही साथ दुष्कर कार्य, हमें उनके उन सभी
पहलुओं के नज़दीक ले आये जिनसे हम कदापि वाकिफ नहीं थे |
बस वो सभी मीटिंग्स एवं कार्यक्रम के दौरान की बातें, उनके प्रति एक लगाव उत्पन्न कर गयी |
वो लगाव कब पसंद, वो पसंद कब इच्छा तथा वो इच्छा कब प्रेम में बदली , पता ही नहीं चला |
प्रेम जैसी परिपाटी से हम आज भी अनभिज्ञ है और हम सभी के सामने ये दावा भी करते है कि हम प्रेम करना ही
नहीं चाहते, परन्तु ये सत्य है की वो मेरे इस जीवन पुस्तक में एक अनूठे अध्याय की तरह है | मैं इस अध्याय को अभी तक
पढ़ नहीं पाया हूँ.....समझना तो परे है !
मेरी तीसरी नज़र की चाहत आज तक केवल वाक्य ही है क्योंकि मैं उसे ये बताने का साहस नहीं कर पाया हूँ की वो मेरे लिए क्या है और उससे जो सीखा है वो किसी और पे लुटा पाया तो खुशनसीबी होगी ||
- एक अबूझ आशिक
Friday, April 3, 2009
कॉलेज की वो राहें (रचना --- मुकुल सिन्हा )
राह देखी थी इस दिन की कबसे ,
आगे के सपने सजा रखे थे ना जाने कबसे .
बड़े उतावले थे यहाँ से जाने को ,
ज़िन्दगी का अगला पड़ाव पाने को .
पर ना जाने क्यों ..दिल में आज कुछ और आता है ,
वक़्त को रोकने का जी चाहता है .
जिन बातों को लेकर रोते थे आज उन पर हंसी आती है ,
न जाने क्यों आज उन पलों की याद बहुत आती है
कहा करते थे ..बड़ी मुश्किल से चार साल सह गया ,
पर आज क्यों लगता है की कुछ पीछे रह गया .
न भूलने वाली कुछ यादें रह गयी ,
यादें जो अब जीने का सहारा बन गयी .
मेरी टांग अब कौन खींचा करेगा ,
सिर्फ मेरा सर खाने कौन मेरा पीछा करेगा .
जहां 200 का हिसाब नहीं वहाँ 2 रूपए के लिए कौन लडेगा ,
कौन रात भर साथ जग कर पड़ेगा ,
कौन मेरे नए नए नाम बनाएगा .
में अब बिना मतलब किससे लडूंगा ,
बिना topic के किस्से फालतू बात करूंगा ,
कौन फ़ैल होने पर दिलासा दिलाएगा ,
कौन गलती से नंबर आने पर गालियाँ सुनाएगा .
रेडी पर चाय किस के साथ पियूंगा ,
वो हसीं पल अब किस के साथ जियूँगा ,
ऐसे दोस्त कहाँ मिलेंगे जो खाई में भी धक्का दे आयें ,
पर फिर तुम्हें बचाने खुद भी कूद जायें .
मेरे गानों से परेशान कौन होगा ,
कभी मुझे किसी लड़की से बात करते देख हैरान कौन होगा ,
कौन कहेगा साले तेरे joke पे हंसी नहीं आई ,
कौन पीछे से बुला के कहेगा ..आगे देख भाई .
अचानक बिन मतलब के किसी को भी देख कर पागलों की तरह हँसना ,
न जाने ये फिर कब होगा .
दोस्तों के लिए प्रोफ़ेसर से कब लड़ पाएंगे ,
क्या हम ये फिर कर पाएंगे ,
कौन मुझे मेरे काबिलियत पर भरोसा दिलाएगा ,
और ज्यादा हवा में उड़ने पर ज़मीन पे लायेगा ,
मेरी ख़ुशी में सच में खुश कौन होगा ,
मेरे गम में मुझ से ज्यादा दुखी कौन होगा ...
कह दो दोस्तों ये दुबारा कब होगा ....????
--------------------------------------
मुकुल सिन्हा
आगे के सपने सजा रखे थे ना जाने कबसे .
बड़े उतावले थे यहाँ से जाने को ,
ज़िन्दगी का अगला पड़ाव पाने को .
पर ना जाने क्यों ..दिल में आज कुछ और आता है ,
वक़्त को रोकने का जी चाहता है .
जिन बातों को लेकर रोते थे आज उन पर हंसी आती है ,
न जाने क्यों आज उन पलों की याद बहुत आती है
कहा करते थे ..बड़ी मुश्किल से चार साल सह गया ,
पर आज क्यों लगता है की कुछ पीछे रह गया .
न भूलने वाली कुछ यादें रह गयी ,
यादें जो अब जीने का सहारा बन गयी .
मेरी टांग अब कौन खींचा करेगा ,
सिर्फ मेरा सर खाने कौन मेरा पीछा करेगा .
जहां 200 का हिसाब नहीं वहाँ 2 रूपए के लिए कौन लडेगा ,
कौन रात भर साथ जग कर पड़ेगा ,
कौन मेरे नए नए नाम बनाएगा .
में अब बिना मतलब किससे लडूंगा ,
बिना topic के किस्से फालतू बात करूंगा ,
कौन फ़ैल होने पर दिलासा दिलाएगा ,
कौन गलती से नंबर आने पर गालियाँ सुनाएगा .
रेडी पर चाय किस के साथ पियूंगा ,
वो हसीं पल अब किस के साथ जियूँगा ,
ऐसे दोस्त कहाँ मिलेंगे जो खाई में भी धक्का दे आयें ,
पर फिर तुम्हें बचाने खुद भी कूद जायें .
मेरे गानों से परेशान कौन होगा ,
कभी मुझे किसी लड़की से बात करते देख हैरान कौन होगा ,
कौन कहेगा साले तेरे joke पे हंसी नहीं आई ,
कौन पीछे से बुला के कहेगा ..आगे देख भाई .
अचानक बिन मतलब के किसी को भी देख कर पागलों की तरह हँसना ,
न जाने ये फिर कब होगा .
दोस्तों के लिए प्रोफ़ेसर से कब लड़ पाएंगे ,
क्या हम ये फिर कर पाएंगे ,
कौन मुझे मेरे काबिलियत पर भरोसा दिलाएगा ,
और ज्यादा हवा में उड़ने पर ज़मीन पे लायेगा ,
मेरी ख़ुशी में सच में खुश कौन होगा ,
मेरे गम में मुझ से ज्यादा दुखी कौन होगा ...
कह दो दोस्तों ये दुबारा कब होगा ....????
------------------------------
मुकुल सिन्हा
तेरी वजह से में प्यारा हूँ
किसे बाहों में ले जिंदगी
हतप्रभ है , हैरान है।
शिशु की मुस्कान सी मासूम भले
पर ख़ुद मृत्यू की मेहमान है।
अनजानी सी सुगंध लिए
झूमती है , गाती है।
सावन के हिंडोले पर हवा से
बतियाती है , इतराती है।
महबूबा हो जैसे , बावरी हो अपने ढोला की
साँसों की सरगम पे सूप से दिनों को झटकती
गाँव की गोरी जैसी अल्हड
गीतों से अपने आप को दुनिया को सुनाती
ऐ जिंदगी
समझ नही आता तुझे सलाम करूँ
या तरस जताऊं
नहीं जानता, केवल यही कहना है तुझसे
तेरी गोद में मैं बैठा हूँ
और तेरे साजन से मिलना नहीं चाहता मैं
अंश बने रहने की इच्छा है तेरे वजूद का
क्यूँकि तू खूबसूरत है, इसीलिए शायद
मैं भी थोड़ा सा प्यारा हूँ ।
हतप्रभ है , हैरान है।
शिशु की मुस्कान सी मासूम भले
पर ख़ुद मृत्यू की मेहमान है।
अनजानी सी सुगंध लिए
झूमती है , गाती है।
सावन के हिंडोले पर हवा से
बतियाती है , इतराती है।
महबूबा हो जैसे , बावरी हो अपने ढोला की
साँसों की सरगम पे सूप से दिनों को झटकती
गाँव की गोरी जैसी अल्हड
गीतों से अपने आप को दुनिया को सुनाती
ऐ जिंदगी
समझ नही आता तुझे सलाम करूँ
या तरस जताऊं
नहीं जानता, केवल यही कहना है तुझसे
तेरी गोद में मैं बैठा हूँ
और तेरे साजन से मिलना नहीं चाहता मैं
अंश बने रहने की इच्छा है तेरे वजूद का
क्यूँकि तू खूबसूरत है, इसीलिए शायद
मैं भी थोड़ा सा प्यारा हूँ ।
Monday, March 30, 2009
Wednesday, March 18, 2009
यात्रा
लोग कहते है आदमी मुसाफिर है,
इसका मतलब हम भी मुसाफिर हुए
अच्छा लगा सुनके
हम यात्री हैं,चाँद भी कुछ वैसा ही है
बस एक फर्क नज़र आया मुझे
चाँद कभी कभी ठहर जाता है
लेकिन हमारा ठहरना वाजिब नहीं
बस चलते जाना ही उम्मीद को जन्म देता है हमारी दुनिया में
किन्तु मैं तो दौड़ रहा हूँ रफ़्तार से
फिर मैं ना-उम्मीद क्यूँ हो जाता हूँ
क्यूँ दिखाई नहीं देती रौशनी कभी कभी
खिड़की से ही टकराकर लौट जाती है
परदे पर एक छाया सी बनती है
और एक निमेश के अन्तराल में
मेरी चक्षु-पटल फिर से नीरस हो जाते है
तब में पहली पंक्ति याद करता हूँ
फिर चाँद से तुलना
और रात्रि में सोने से पहले
मैं एक बार दुबारा उम्मीद से लबालब
भोर की प्रतीक्षा लिए आँखों में
चैन से सो जाता हूँ
क्यूंकि मैं मुसाफिर हूँ ,शायद ज़िन्दगी की राह में सफ़र ऐसे ही तय होता है |
इसका मतलब हम भी मुसाफिर हुए
अच्छा लगा सुनके
हम यात्री हैं,चाँद भी कुछ वैसा ही है
बस एक फर्क नज़र आया मुझे
चाँद कभी कभी ठहर जाता है
लेकिन हमारा ठहरना वाजिब नहीं
बस चलते जाना ही उम्मीद को जन्म देता है हमारी दुनिया में
किन्तु मैं तो दौड़ रहा हूँ रफ़्तार से
फिर मैं ना-उम्मीद क्यूँ हो जाता हूँ
क्यूँ दिखाई नहीं देती रौशनी कभी कभी
खिड़की से ही टकराकर लौट जाती है
परदे पर एक छाया सी बनती है
और एक निमेश के अन्तराल में
मेरी चक्षु-पटल फिर से नीरस हो जाते है
तब में पहली पंक्ति याद करता हूँ
फिर चाँद से तुलना
और रात्रि में सोने से पहले
मैं एक बार दुबारा उम्मीद से लबालब
भोर की प्रतीक्षा लिए आँखों में
चैन से सो जाता हूँ
क्यूंकि मैं मुसाफिर हूँ ,शायद ज़िन्दगी की राह में सफ़र ऐसे ही तय होता है |
Saturday, March 7, 2009
कितनी अजिअत से उसने मुझ को भुलाया होगा !
मेरी धुंधली यादों ने उसे खूब रुलाया होगा !!
बात बे-बात आंख उस की जो छलकती होगी,
उस ने चेहरे को बाजुओं में छुपाया होगा !
सोचा होगा उस ने दिन में कई बार मुझे,
नाम हथेली पे भी लिख लिख के मिटाया होगा !
जहां उस ने मेरा ज़िक्र सुना होगा किसी से,
उस की आँखों में कोई आंसू तो आया होगा !
रात के भीगने तक नींद न आई होगी ,
तू ने तकिये को भी सीने से लगाया होगा!
हो के निढाल मेरे यादों से तू ने जाना,
मेरी तस्वीर पे सर अपना टिकाया होगा !
पुछा होगा जो किसी ने तेरी हालत का सबब,
तूने बातों में खूब उस से छुपाया होगा!
जब कभी चाँद को देखा होगा अकेले तू ने,
तुझे मेरा साथ बार-बार याद आया होगा !!
मेरी धुंधली यादों ने उसे खूब रुलाया होगा !!
बात बे-बात आंख उस की जो छलकती होगी,
उस ने चेहरे को बाजुओं में छुपाया होगा !
सोचा होगा उस ने दिन में कई बार मुझे,
नाम हथेली पे भी लिख लिख के मिटाया होगा !
जहां उस ने मेरा ज़िक्र सुना होगा किसी से,
उस की आँखों में कोई आंसू तो आया होगा !
रात के भीगने तक नींद न आई होगी ,
तू ने तकिये को भी सीने से लगाया होगा!
हो के निढाल मेरे यादों से तू ने जाना,
मेरी तस्वीर पे सर अपना टिकाया होगा !
पुछा होगा जो किसी ने तेरी हालत का सबब,
तूने बातों में खूब उस से छुपाया होगा!
जब कभी चाँद को देखा होगा अकेले तू ने,
तुझे मेरा साथ बार-बार याद आया होगा !!
Monday, March 2, 2009
Friday, February 27, 2009
अंदाज़ और जिंदगी
अकेले बसर जो की ज़िन्दगी तो बेवफाई जानिये |
नाज़ न उठाये किसी नाज़नीं के तो हरजाई जानिये |
वक्त हो शाम का, बैठा हो रहबर पहलू में ,
फिर चाँद के अफसानों को आशनाई जानिये|
बिखरा हो शबाब आस-पास, उँगलियों में जाम हो
निकल आना उठकर महफिल की रुसवाई जानिये|
दोस्त बस दोस्त रहे मुहब्बत का मसीहा न हो,
गर करे बात-बात पे तारीफ़ महबूब का शैदाई जानिये|
तरन्नुम में वो कातिल बाहें गले में डाले हो 'रोबिन' ,
चिरियों की चहचाहट को बस बजती शहनाई जानिये |
नाज़ न उठाये किसी नाज़नीं के तो हरजाई जानिये |
वक्त हो शाम का, बैठा हो रहबर पहलू में ,
फिर चाँद के अफसानों को आशनाई जानिये|
बिखरा हो शबाब आस-पास, उँगलियों में जाम हो
निकल आना उठकर महफिल की रुसवाई जानिये|
दोस्त बस दोस्त रहे मुहब्बत का मसीहा न हो,
गर करे बात-बात पे तारीफ़ महबूब का शैदाई जानिये|
तरन्नुम में वो कातिल बाहें गले में डाले हो 'रोबिन' ,
चिरियों की चहचाहट को बस बजती शहनाई जानिये |
कुछ और
ये नज़र-अंदाजी की अदा कुछ और होती |
गर तेरी दिलचस्पी मुझमें थोडी और होती |
तेरी चितवन उफ़! क्या उलझन भरी है,
यूँ उलझते ना जो निगाह कुछ और होती |
सवाल यारों के, जनाब कहाँ तक पहुँची बातें,
मुस्कुरा के क्यूँ टालते जो बात कुछ और होती |
कलाकार है,उसकी कलाकारी के हम कायल हैं,
थोड़ा रंग हमारा लेती तो कला कुछ और होती |
कैसे भुलाएं तुझे, भले भूलने को मजबूर हों,
तू बेवफा होती तब वजह कुछ और होती |
'रोबिन' नसीब है किसी शैदाई की वो महज़बीं,
पल भर मेरी होती,चाहे किस्मत कुछ और होती |
गर तेरी दिलचस्पी मुझमें थोडी और होती |
तेरी चितवन उफ़! क्या उलझन भरी है,
यूँ उलझते ना जो निगाह कुछ और होती |
सवाल यारों के, जनाब कहाँ तक पहुँची बातें,
मुस्कुरा के क्यूँ टालते जो बात कुछ और होती |
कलाकार है,उसकी कलाकारी के हम कायल हैं,
थोड़ा रंग हमारा लेती तो कला कुछ और होती |
कैसे भुलाएं तुझे, भले भूलने को मजबूर हों,
तू बेवफा होती तब वजह कुछ और होती |
'रोबिन' नसीब है किसी शैदाई की वो महज़बीं,
पल भर मेरी होती,चाहे किस्मत कुछ और होती |
तेरी छुअन का असर शेष है हथेली पर |
लाख दीवाने भले तेरे, है तू अकेली पर |
जान-लेवा है तेरी आदत,मुंह फेर लेने की,
निकले ज़नाजा जब,खडी रहना हवेली पर|
झेलना दुशवार हो चले गर दुनिया के ताने,
कोसना हमें, इल्जाम डाल देना सहेली पर|
उम्र ढलते-ढलते हम बदल जाएँ गिला नही 'रोबिन',
रब करे वो दुल्हन सी रहे, सदा नई-नवेली पर |
लाख दीवाने भले तेरे, है तू अकेली पर |
जान-लेवा है तेरी आदत,मुंह फेर लेने की,
निकले ज़नाजा जब,खडी रहना हवेली पर|
झेलना दुशवार हो चले गर दुनिया के ताने,
कोसना हमें, इल्जाम डाल देना सहेली पर|
उम्र ढलते-ढलते हम बदल जाएँ गिला नही 'रोबिन',
रब करे वो दुल्हन सी रहे, सदा नई-नवेली पर |
Wednesday, February 11, 2009
कुछ और बातें
जिंदगी फलसफों पे गुजारी नही जाती !
आबो-हवा बदलने से बीमारी नही जाती !!
शबनम सी खो जाती है बीती यादें ,
वो पहले प्यार की खुमारी नही जाती !
मानता हूँ कितना झूठ है यहाँ रिश्तों का सच,
कुछ कड़ियाँ फ़िर भी बचती है,सारी नही जाती !
आदत है ठुकराए जाने की हम दरख्तों को,
पर बहार में जवाँ होने की बेकरारी नही जाती !
जहाँ भर की जिल्लत से डरे वो आशिक नही,
बाज़ी दिल की जीती जाती है ,हारी नही जाती !
अपने ही निगेह्बानों को भुला देते है लोग 'रोबिन',
बस ख़ास दौड़ता है यहाँ ,आम सवारी नही जाती !
आबो-हवा बदलने से बीमारी नही जाती !!
शबनम सी खो जाती है बीती यादें ,
वो पहले प्यार की खुमारी नही जाती !
मानता हूँ कितना झूठ है यहाँ रिश्तों का सच,
कुछ कड़ियाँ फ़िर भी बचती है,सारी नही जाती !
आदत है ठुकराए जाने की हम दरख्तों को,
पर बहार में जवाँ होने की बेकरारी नही जाती !
जहाँ भर की जिल्लत से डरे वो आशिक नही,
बाज़ी दिल की जीती जाती है ,हारी नही जाती !
अपने ही निगेह्बानों को भुला देते है लोग 'रोबिन',
बस ख़ास दौड़ता है यहाँ ,आम सवारी नही जाती !
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