किस्से कहानियाँ मुहब्बत आशिकी
वफ़ा दीवानगी ज़ज्बात बंदगी !
शब्द हैं शायद शब्द ही होंगे। मैंने बस इन्ही लफ्जों को अपने आस-पास बिखरते देखा, बिकते देखा, तड़पते देखा, ठिठुरते देखा। लगा जैसे दुनिया कहीं ना कहीं सही है, ग़लत होती तो ये मंज़र यूँ निगाहों से बावस्ता ना होते ! प्रेम या आकर्षण, दुविधा में स्वयं प्रेम के पुरोधा और प्रेमी, चाहतों के मेले लगाए हुए खानाबदोश जैसे!
मगर मेरी निगाहों का देखा, मेरे पेशाने की रेखाओं को नही भाया। उनकी योजना कुछ जुदा थी, अलहदा थी। इन सभी मंज़रों की फेहरिस्त में से एक आवाज़ मेरे लिए इतनी लाजिम हो जायेगी, इसका इल्म मुझे तो क्या मेरे
अवचेतन मस्तिष्क को भी नहीं था।
अतः मेरी सभी अवधारणाओं एवं गलतफहमियों का पटाक्षेप इसी वर्ष के उस महीने से प्रारंभ हुआ जिस महीने में होलिका दहन किया जाता है। कहने का तात्पर्य है कि उसी समय अंतराल में हमारे मन् में उपस्थित सभी प्रकार के भ्रमों की सामूहिक होलिका भी जल गई। वो अब तक मेरे सिर्फ़ एक Internet पर कुछ बातें और कुछ समय बाद एक आवाज़ के रूप में सामने थी। समय बहुत कारिस्तान होता है जनाब, ये समझ पाते उससे पहले ही वो आवाज़ एक आवाज़ से कहीं अधिक हो गई। धीरे-धीरे वो आवाज़ जेहन में इस तरह समाने लगी , लगा बस सुनता रहूँ और ये रात कभी ख़त्म ना हो।वफ़ा दीवानगी ज़ज्बात बंदगी !
शब्द हैं शायद शब्द ही होंगे। मैंने बस इन्ही लफ्जों को अपने आस-पास बिखरते देखा, बिकते देखा, तड़पते देखा, ठिठुरते देखा। लगा जैसे दुनिया कहीं ना कहीं सही है, ग़लत होती तो ये मंज़र यूँ निगाहों से बावस्ता ना होते ! प्रेम या आकर्षण, दुविधा में स्वयं प्रेम के पुरोधा और प्रेमी, चाहतों के मेले लगाए हुए खानाबदोश जैसे!
मगर मेरी निगाहों का देखा, मेरे पेशाने की रेखाओं को नही भाया। उनकी योजना कुछ जुदा थी, अलहदा थी। इन सभी मंज़रों की फेहरिस्त में से एक आवाज़ मेरे लिए इतनी लाजिम हो जायेगी, इसका इल्म मुझे तो क्या मेरे
अवचेतन मस्तिष्क को भी नहीं था।
मेरे उस महज़बीन को क्या नाम देकर यहाँ लिखूं, थोड़ा सा असमंजस में हूँ। चलिए फ़िर भी एक नाम दे देता हूँ 'किशमिश'। मुझे पता है ये नाम सुनकर थोडी सी हँसी या मुस्कान आ जाती है किंतु बस नाम है तो है । किशमिश की तारीफ़ और उसकी qualities की फेहरिस्त थोडी लम्बी है तथा आप जानते ही हैं कि ऐसा होना लाज़मी है। भाई प्रेम है और प्रेम भी हम नाचीज़ का है।
क्या लिखें अब, समझ नही पा रहा हूँ क्यूंकि प्रेम कि इस राह पर कुछ ही कदम चला हूँ। लेकिन इतना कह सकता हूँ कि वो आवाज़ और वो चेहरा अब जरूरत बनता जा रहा है और बस यही दुआ रहती है उसके चेहरे पे मुस्कराहट कि एक लकीर हर पल खिंची रहे। उसके सज़दे में अपना ही एक शेर कहना चाहूंगा :-
उसकी आँखें देखकर अब पीने को जी नहीं करता ।
वो दूर है इतनी, बगैर उसके जीने को जी नहीं करता !!
बाकी बातें अगली बार समय मिलने पर.....
क्या लिखें अब, समझ नही पा रहा हूँ क्यूंकि प्रेम कि इस राह पर कुछ ही कदम चला हूँ। लेकिन इतना कह सकता हूँ कि वो आवाज़ और वो चेहरा अब जरूरत बनता जा रहा है और बस यही दुआ रहती है उसके चेहरे पे मुस्कराहट कि एक लकीर हर पल खिंची रहे। उसके सज़दे में अपना ही एक शेर कहना चाहूंगा :-
उसकी आँखें देखकर अब पीने को जी नहीं करता ।
वो दूर है इतनी, बगैर उसके जीने को जी नहीं करता !!
बाकी बातें अगली बार समय मिलने पर.....
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