Wednesday, March 18, 2009

यात्रा

लोग कहते है आदमी मुसाफिर है,
इसका मतलब हम भी मुसाफिर हुए
अच्छा लगा सुनके
हम यात्री हैं,चाँद भी कुछ वैसा ही है
बस एक फर्क नज़र आया मुझे
चाँद कभी कभी ठहर जाता है
लेकिन हमारा ठहरना वाजिब नहीं
बस चलते जाना ही उम्मीद को जन्म देता है हमारी दुनिया में
किन्तु मैं तो दौड़ रहा हूँ रफ़्तार से
फिर मैं ना-उम्मीद क्यूँ हो जाता हूँ
क्यूँ दिखाई नहीं देती रौशनी कभी कभी
खिड़की से ही टकराकर लौट जाती है
परदे पर एक छाया सी बनती है
और एक निमेश के अन्तराल में
मेरी चक्षु-पटल फिर से नीरस हो जाते है
तब में पहली पंक्ति याद करता हूँ
फिर चाँद से तुलना
और रात्रि में सोने से पहले
मैं एक बार दुबारा उम्मीद से लबालब
भोर की प्रतीक्षा लिए आँखों में
चैन से सो जाता हूँ
क्यूंकि मैं मुसाफिर हूँ ,शायद ज़िन्दगी की राह में सफ़र ऐसे ही तय होता है |

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