अर्जियां सारी मैं चेहरे पे लिख के लाया हूँ,
मैं क्या बताऊँ तुम ख़ुद ही समझ लो ना.......मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला।
प्रसून जोशी के शब्द भारतीय फिल्मी गीतों में नवीनता की सुगंध लिए प्रतीत होते है। मुझे लगा था शायद गुलज़ार और जावेद अख्तर के बाद ये गीतों की परम्परा नष्ट हो जाए, वो परम्परा जिसकी श्रृंखलाबद्ध कड़ियों में साहिर, हसरत जैपुरी, प्रदीप, शैलेन्द्र, राजेंद्र कृष्ण, मजरूह इत्यादि जैसे रचनाकार शुमार हैं, यकीनन इन् दो आखिरी महानुभावो के बाद शायद ठहर जाती। किंतु प्रसून और उनके समकालीन कुछ और गीतकार इस बात की आशा दिलाते है की हिन्दी गीतों की वो पुरानी परम्परा सतत जारी रहेगी। यूँ तो मैं नए प्रयोगों का पक्षधर हूँ लेकिन बुनियाद को change करने का मैं कायल नहीं।
एक और पक्ष जिसकी तरफ़ मेरा ध्यान हमेशा जाता रहता है वो यह की पुराने गानों अथवा संगीत की तुलना आज के गीत-संगीत के साथ करना लाज़मी नहीं है। परिवर्तन के तौर पर देखा जाए तो ये संगीत अपनी स्थिति पर कायम रहने का अधिकारी है। एक प्रकार से गीत-संगीत विचार, आचार, संस्कृति एवं सोच को परिलक्षित करते हैं और आज के दौर में प्रचलित संगीत एवं गीतों के बोल या उनकी भाषा किसी भी लिहाज़ से ग़लत नही है। अतः ये कहना कतई ग़लत नहीं होगा कि वर्तमान की गीत-भाषा को को परिशोधित करने में ये नवीन गीतकार एक सीमा तक सफल रहे हैं। मैं आजकल पुनः गानों को चाव से सुनने लगा हूँ।
बाकी बातें अगली बार समय मिलने पर.....
No comments:
Post a Comment