Monday, August 17, 2009

ख्वाहिश या दर्द

यादें तेरी सिरहाने रख के क्या सोये ,
नींद बाद मुद्दत के हमको खालिस लगी।

एक-दो अश्क ढुलकते रहे तन्हाइयों में,
तेरे सामने रोये तो बारिश लगी।

फैसला तेरा हो भले हमें ठुकराने का,
पर मुझे तो ये ज़माने की साजिश लगी।

लाल जोड़े में देखा जो तुझे आज शाम,
ना जाने दिल को ये कैसी ख्वाहिश लगी।

तू मेरी थी ना, फ़िर क्यूँ कल तेरी आंखों में,
वो नमी किसी और की सिफारिश लगी।

भूलूँ कैसे 'रोबिन' कि तू किसी और का नूर हो गया,
बेशक अधूरी हो,पर मुहब्बत अपनी नाजिश लगी।

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