साँझ में फलक से उतरते शबाब सी वो।
पैमाने के कोर से छलकती शराब सी वो।
अब तक सोचते रहे भई क्या है ज़िंदगी,
पहाड़ से इस सवाल का मुकम्मल जवाब सी वो।
शहज़ादी कहो या ग़ज़ल तब भी क्या तारीफ़ हुई,
पढो तो बस खिलखिला उठो ऐसी किताब सी वो।
धड़कनों को नशा सा चढ़ने लगता है झलक भर पे,
ठहरे बुलबुले सी नाज़ुक, मासूम आदाब सी वो।
जो हम कभी थे अब हम वो ना रहे 'रोबिन',
जब से जर्रे-२ में समा गई इंकलाब सी वो।
EVOL YOU! :) ;)
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