Thursday, December 10, 2009

जाम सी वो



साँझ में फलक से उतरते शबाब सी वो।
पैमाने के कोर से छलकती शराब सी वो।

अब तक सोचते रहे भई क्या है ज़िंदगी,
पहाड़ से इस सवाल का मुकम्मल जवाब सी वो।

शहज़ादी कहो या ग़ज़ल तब भी क्या तारीफ़ हुई,
पढो तो बस खिलखिला उठो ऐसी किताब सी वो


धड़कनों को नशा सा चढ़ने लगता है झलक भर पे,
ठहरे बुलबुले सी नाज़ुक, मासूम आदाब सी वो।

जो हम कभी थे अब हम वो ना रहे 'रोबिन',
जब से जर्रे-२ में समा गई इंकलाब सी वो।



1 comment:

1

save tiger

save tiger

save animals

save animals