Saturday, November 28, 2009

आरज़ू

जब तलक मौत सर नहीं आती।
बन्दे को ज़िन्दगी नज़र नहीं आती।

सोचो तो अँधेरा भी वरदान है,
अँधेरा ना हो तो सहर नहीं
आती।

वो शमा रात को शराफत जलाती है,
सुबह तक उसकी ख़बर नहीं आती



रोज़ बिकते हैं ईमान बाज़ार में,
शर्म होती है मगर नहीं आती।

एक लड़की है प्यार भी करती है,
कहती है मिलने को पर नहीं आती।

चाँदनी सी बिखरी है आसमां में मेरी चाहत,
कभी मेरे लिए क्यूँ वो उतर नहीं आती।

सँवरती है कहीं कोई अनजानी मेरे लिए,
बस उसकी खुशबू मुझ तक उड़कर नहीं आती।

किसी से बेपनाह मुहब्बत उसकी इबादत है,
उसको क्या जानोगे ये इबादत अगर नहीं आती

तुझे पाना है तो तेरे दिल को छूना पड़ेगा 'रोबिन',
क्यूँकि मंजिल राही तक चलकर नहीं आती।

Saturday, November 14, 2009

आशिक और तवायफ

इस शाम को अब क्या तोहमत दूँ,
उसे रूठकर जाते किसने देखा
हम भी नशे में, जहाँ भी अधखुला था
अकेली थी शाम उसको जाते जिसने देखा
लोग कहते हैं उसकी फितरत माकूल नहीं
बस मैंने नकारा बाकी
बदनाम गलियों में उसे सबने देखा
वो जिस्म दिखाकर पेट पालती है,
ये माजरा नहीं किसी ने देखा
तवायफ है, जिस्म दिखाना लाज़मी है
उन सब शरीफों के अदब ने देखा
किसी ने कान में डाला
उसकी वफ़ा का क्या भरोसा
सबकी है वो , ये सबने देखा
मेरी गोद में जब वो दिनभर की थकान सुनाती है
उन भरी-भरी आंखों की अदा को बस हमने देखा
आलम उसके थिरकने के हुनर को खरीदता है,
मैं सलाम करता हूँ उसके बेचने के अंदाज़ को,
हुस्न पे लगे छीटों को पूरे आलम ने देखा
रूह की पाकीज़गी को सिर्फ़ सनम ने देखा
ये फर्क मुझे मालूम है
मैं क्यूँ किसी को समझाता फिरूं,
जिसने जैसा सोचा, वैसा उसने देखा
ठुकराते हैं उसे दिन की शर्मिंदगी में,
हासिल चाहते हैं सब रात की आवारगी में,
दोगलापन हर एक ने चाहा हर एक ने देखा
मुझे आशिक नाम देकर अलग कर दिया
जब दिन में मूरत और रात में खुदा
उसे मेरे मज़हब ने देखा।-2


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