अर्जियां सारी मैं चेहरे पे लिख के लाया हूँ,
मैं क्या बताऊँ तुम ख़ुद ही समझ लो ना.......मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला।
प्रसून जोशी के शब्द भारतीय फिल्मी गीतों में नवीनता की सुगंध लिए प्रतीत होते है। मुझे लगा था शायद गुलज़ार और जावेद अख्तर के बाद ये गीतों की परम्परा नष्ट हो जाए, वो परम्परा जिसकी श्रृंखलाबद्ध कड़ियों में साहिर, हसरत जैपुरी, प्रदीप, शैलेन्द्र, राजेंद्र कृष्ण, मजरूह इत्यादि जैसे रचनाकार शुमार हैं, यकीनन इन् दो आखिरी महानुभावो के बाद शायद ठहर जाती। किंतु प्रसून और उनके समकालीन कुछ और गीतकार इस बात की आशा दिलाते है की हिन्दी गीतों की वो पुरानी परम्परा सतत जारी रहेगी। यूँ तो मैं नए प्रयोगों का पक्षधर हूँ लेकिन बुनियाद को change करने का मैं कायल नहीं।
एक और पक्ष जिसकी तरफ़ मेरा ध्यान हमेशा जाता रहता है वो यह की पुराने गानों अथवा संगीत की तुलना आज के गीत-संगीत के साथ करना लाज़मी नहीं है। परिवर्तन के तौर पर देखा जाए तो ये संगीत अपनी स्थिति पर कायम रहने का अधिकारी है। एक प्रकार से गीत-संगीत विचार, आचार, संस्कृति एवं सोच को परिलक्षित करते हैं और आज के दौर में प्रचलित संगीत एवं गीतों के बोल या उनकी भाषा किसी भी लिहाज़ से ग़लत नही है। अतः ये कहना कतई ग़लत नहीं होगा कि वर्तमान की गीत-भाषा को को परिशोधित करने में ये नवीन गीतकार एक सीमा तक सफल रहे हैं। मैं आजकल पुनः गानों को चाव से सुनने लगा हूँ।
बाकी बातें अगली बार समय मिलने पर.....
I am an agent of chaos and a perplexed freak !! लेकिन चंद लोग मेरे आस-पास ऐसे हैं जो मेरे लिए न केवल प्रेरणा हैं किन्तु उम्मीद की किरनें भी हैं !! बस उन्हीं को समर्पित....
Sunday, April 12, 2009
Saturday, April 4, 2009
एक राकेश ऐसा भी
उसकी आँखें देखकर अब पीने को जी नहीं करता ।
वो दूर है इतनी, बगैर जालिम के जीने को जी नहीं करता !!
भले वो आती है मुझसे मिलने दो-चार घड़ी भर के लिए,
प्यास उतनी ही रहती, ये दरिया कभी नहीं भरता !!
पहरों इंतज़ार उसका और शब् में वो उतरती मुस्कुराती,
क्या है कि जो मेरे भीतर इतने सितम के बाद भी नहीं मरता !!
अब इसे इश्क कहूं कि दीवानापन या आशिकी नाम दूँ,
वो गर मेरे साथ है तो फ़िर मैं इस जहाँ से भी नहीं डरता !!
दो पल का साथ उसका एक जिन्दगी के बराबर मान राकेश,
उससे जुदा होने के ग़म के सामने अब कोई और दर्द नहीं ठहरता !!
वो दूर है इतनी, बगैर जालिम के जीने को जी नहीं करता !!
भले वो आती है मुझसे मिलने दो-चार घड़ी भर के लिए,
प्यास उतनी ही रहती, ये दरिया कभी नहीं भरता !!
पहरों इंतज़ार उसका और शब् में वो उतरती मुस्कुराती,
क्या है कि जो मेरे भीतर इतने सितम के बाद भी नहीं मरता !!
अब इसे इश्क कहूं कि दीवानापन या आशिकी नाम दूँ,
वो गर मेरे साथ है तो फ़िर मैं इस जहाँ से भी नहीं डरता !!
दो पल का साथ उसका एक जिन्दगी के बराबर मान राकेश,
उससे जुदा होने के ग़म के सामने अब कोई और दर्द नहीं ठहरता !!
वो तीसरी नज़र की चाहत
मैं मैं और बस मैं....arrogant and a guy with attitude. मेरी पहचान, जब से मैंने इस महाविद्यालय में कदम रखा.
आज तलक पहचान वही, केवल थोडा सा अंतर आया है परिभाषित शब्दों में, arrogant समभ्व्तः नहीं रहा, किन्तु guy
with attitude अभी भी हूँ। 10+2 के उस इंसान में और bitsian बन्दे में ज़मीन-आसमान के मध्य जितनी दूरी हो चली है।
वो मासूम सा बच्चा आज मासूमियत की केंचुली कब की त्याग चुका है।
चलिए आते है इस प्रसंग के शीर्षक की और..
मेरे 5 वर्षों के bits-pilani कार्यकाल में वो एक ऐसे अध्याय की भाँति है, जिसके मिटा देने पर हो सकता है मैं स्वयम ही अपना
कार्यकाल याद न रख पाऊं। अब आप पूछेंगे की वो का कोई नाम या अता-पता तो होगा, है अच्छा खासा है परन्तु उसका ज़िक्र अगर
यहाँ केवल सूचक की तरह लिया जाए तो अधिक उपयुक्त होगा।
उसे सबसे पहले मैंने bits में एक जनरल मीटिंग के दौरान देखा था। तब शायद उसका सौन्दर्य संभवतः मुझे उतना असाधारण नहीं लगा।
वो एक आम लड़की की तरह थी। वही बाल सुलझाना, बारीकी से देखना, सोच के बोलना, हल्का सा make-up, साधारण से वस्त्र और
सादगी भरा चेहरा. कुछ बातें, वो भी औपचारिक| मीटिंग समाप्त और मेरी भंगिमा पुराने जैसी, अपने ठिकाने की तरफ कदम
बढाते हुए हम चले आये| कभी कभार ज़रा सी चर्चा हुई तो उनका नाम भी आया लेकिन कोई हलचल जैसी वस्तु वहाँ
नहीं हुई | दिन गुजरते गए..रात सवेरे में तब्दील होती रही..महीने साल से प्यार करने निकल पड़े |
अब आते है द्वितीय नज़र पर...... ये नज़र कई श्रृंखलाओं का समागम है अर्थात मात्र एक मुलाकात नहीं बल्कि
अनेक का संगम है | जैसे जैसे हम उनकी विभिन्न कलाओं से परिचित होते गए, वैसे वैसे हमारे मानस पटल पर
वो परत सी चढ़ती गयी | यकीनन अभी परत अत्यंत पतली रही होगी अन्यथा हम इतना समय व्यर्थ ना गवां देते | वो कलाकार,
चित्रकार, पहेलिकार और ना जाने किन किन रूपों में हमसे मुखातिब होती रही और सच मानिए अभी भी कमबख्त परत पूर्ववत रही |
क्यूँकि इंसान के रूप में सामना ही परत की मोटाई को नया आकार दे सकता था और हुआ भी यही......
तीसरी नज़र...
शुरुआत थी तृतीय वर्ष की | हम पर उत्तर दायित्व एक बेहतरीन शाम आयोजित करवाने का था तथा इस भारी भरकम
काम के लिए मुझे सभी सहयोगियों का साथ चाहिए था | हम जिस संगठन के मुखिया थे उस नाते ये हमारी जिम्मेदारी थी कि हम सबको
साथ लेकर एक अद्भुत शाम प्रस्तुत करें | वो उन सदस्यों में से थी जिनकी भागीदारी उनकी प्रतिभा के अनुरूप नहीं थी | अतः उन्हें संगठन के करीब
लाना और उससे एक सक्रिय सदस्य की भाँति कार्य करवाना , संभवतः ये दोनों रुचिकर साथ ही साथ दुष्कर कार्य, हमें उनके उन सभी
पहलुओं के नज़दीक ले आये जिनसे हम कदापि वाकिफ नहीं थे |
बस वो सभी मीटिंग्स एवं कार्यक्रम के दौरान की बातें, उनके प्रति एक लगाव उत्पन्न कर गयी |
वो लगाव कब पसंद, वो पसंद कब इच्छा तथा वो इच्छा कब प्रेम में बदली , पता ही नहीं चला |
प्रेम जैसी परिपाटी से हम आज भी अनभिज्ञ है और हम सभी के सामने ये दावा भी करते है कि हम प्रेम करना ही
नहीं चाहते, परन्तु ये सत्य है की वो मेरे इस जीवन पुस्तक में एक अनूठे अध्याय की तरह है | मैं इस अध्याय को अभी तक
पढ़ नहीं पाया हूँ.....समझना तो परे है !
मेरी तीसरी नज़र की चाहत आज तक केवल वाक्य ही है क्योंकि मैं उसे ये बताने का साहस नहीं कर पाया हूँ की वो मेरे लिए क्या है और उससे जो सीखा है वो किसी और पे लुटा पाया तो खुशनसीबी होगी ||
- एक अबूझ आशिक
आज तलक पहचान वही, केवल थोडा सा अंतर आया है परिभाषित शब्दों में, arrogant समभ्व्तः नहीं रहा, किन्तु guy
with attitude अभी भी हूँ। 10+2 के उस इंसान में और bitsian बन्दे में ज़मीन-आसमान के मध्य जितनी दूरी हो चली है।
वो मासूम सा बच्चा आज मासूमियत की केंचुली कब की त्याग चुका है।
चलिए आते है इस प्रसंग के शीर्षक की और..
मेरे 5 वर्षों के bits-pilani कार्यकाल में वो एक ऐसे अध्याय की भाँति है, जिसके मिटा देने पर हो सकता है मैं स्वयम ही अपना
कार्यकाल याद न रख पाऊं। अब आप पूछेंगे की वो का कोई नाम या अता-पता तो होगा, है अच्छा खासा है परन्तु उसका ज़िक्र अगर
यहाँ केवल सूचक की तरह लिया जाए तो अधिक उपयुक्त होगा।
उसे सबसे पहले मैंने bits में एक जनरल मीटिंग के दौरान देखा था। तब शायद उसका सौन्दर्य संभवतः मुझे उतना असाधारण नहीं लगा।
वो एक आम लड़की की तरह थी। वही बाल सुलझाना, बारीकी से देखना, सोच के बोलना, हल्का सा make-up, साधारण से वस्त्र और
सादगी भरा चेहरा. कुछ बातें, वो भी औपचारिक| मीटिंग समाप्त और मेरी भंगिमा पुराने जैसी, अपने ठिकाने की तरफ कदम
बढाते हुए हम चले आये| कभी कभार ज़रा सी चर्चा हुई तो उनका नाम भी आया लेकिन कोई हलचल जैसी वस्तु वहाँ
नहीं हुई | दिन गुजरते गए..रात सवेरे में तब्दील होती रही..महीने साल से प्यार करने निकल पड़े |
अब आते है द्वितीय नज़र पर...... ये नज़र कई श्रृंखलाओं का समागम है अर्थात मात्र एक मुलाकात नहीं बल्कि
अनेक का संगम है | जैसे जैसे हम उनकी विभिन्न कलाओं से परिचित होते गए, वैसे वैसे हमारे मानस पटल पर
वो परत सी चढ़ती गयी | यकीनन अभी परत अत्यंत पतली रही होगी अन्यथा हम इतना समय व्यर्थ ना गवां देते | वो कलाकार,
चित्रकार, पहेलिकार और ना जाने किन किन रूपों में हमसे मुखातिब होती रही और सच मानिए अभी भी कमबख्त परत पूर्ववत रही |
क्यूँकि इंसान के रूप में सामना ही परत की मोटाई को नया आकार दे सकता था और हुआ भी यही......
तीसरी नज़र...
शुरुआत थी तृतीय वर्ष की | हम पर उत्तर दायित्व एक बेहतरीन शाम आयोजित करवाने का था तथा इस भारी भरकम
काम के लिए मुझे सभी सहयोगियों का साथ चाहिए था | हम जिस संगठन के मुखिया थे उस नाते ये हमारी जिम्मेदारी थी कि हम सबको
साथ लेकर एक अद्भुत शाम प्रस्तुत करें | वो उन सदस्यों में से थी जिनकी भागीदारी उनकी प्रतिभा के अनुरूप नहीं थी | अतः उन्हें संगठन के करीब
लाना और उससे एक सक्रिय सदस्य की भाँति कार्य करवाना , संभवतः ये दोनों रुचिकर साथ ही साथ दुष्कर कार्य, हमें उनके उन सभी
पहलुओं के नज़दीक ले आये जिनसे हम कदापि वाकिफ नहीं थे |
बस वो सभी मीटिंग्स एवं कार्यक्रम के दौरान की बातें, उनके प्रति एक लगाव उत्पन्न कर गयी |
वो लगाव कब पसंद, वो पसंद कब इच्छा तथा वो इच्छा कब प्रेम में बदली , पता ही नहीं चला |
प्रेम जैसी परिपाटी से हम आज भी अनभिज्ञ है और हम सभी के सामने ये दावा भी करते है कि हम प्रेम करना ही
नहीं चाहते, परन्तु ये सत्य है की वो मेरे इस जीवन पुस्तक में एक अनूठे अध्याय की तरह है | मैं इस अध्याय को अभी तक
पढ़ नहीं पाया हूँ.....समझना तो परे है !
मेरी तीसरी नज़र की चाहत आज तक केवल वाक्य ही है क्योंकि मैं उसे ये बताने का साहस नहीं कर पाया हूँ की वो मेरे लिए क्या है और उससे जो सीखा है वो किसी और पे लुटा पाया तो खुशनसीबी होगी ||
- एक अबूझ आशिक
Friday, April 3, 2009
कॉलेज की वो राहें (रचना --- मुकुल सिन्हा )
राह देखी थी इस दिन की कबसे ,
आगे के सपने सजा रखे थे ना जाने कबसे .
बड़े उतावले थे यहाँ से जाने को ,
ज़िन्दगी का अगला पड़ाव पाने को .
पर ना जाने क्यों ..दिल में आज कुछ और आता है ,
वक़्त को रोकने का जी चाहता है .
जिन बातों को लेकर रोते थे आज उन पर हंसी आती है ,
न जाने क्यों आज उन पलों की याद बहुत आती है
कहा करते थे ..बड़ी मुश्किल से चार साल सह गया ,
पर आज क्यों लगता है की कुछ पीछे रह गया .
न भूलने वाली कुछ यादें रह गयी ,
यादें जो अब जीने का सहारा बन गयी .
मेरी टांग अब कौन खींचा करेगा ,
सिर्फ मेरा सर खाने कौन मेरा पीछा करेगा .
जहां 200 का हिसाब नहीं वहाँ 2 रूपए के लिए कौन लडेगा ,
कौन रात भर साथ जग कर पड़ेगा ,
कौन मेरे नए नए नाम बनाएगा .
में अब बिना मतलब किससे लडूंगा ,
बिना topic के किस्से फालतू बात करूंगा ,
कौन फ़ैल होने पर दिलासा दिलाएगा ,
कौन गलती से नंबर आने पर गालियाँ सुनाएगा .
रेडी पर चाय किस के साथ पियूंगा ,
वो हसीं पल अब किस के साथ जियूँगा ,
ऐसे दोस्त कहाँ मिलेंगे जो खाई में भी धक्का दे आयें ,
पर फिर तुम्हें बचाने खुद भी कूद जायें .
मेरे गानों से परेशान कौन होगा ,
कभी मुझे किसी लड़की से बात करते देख हैरान कौन होगा ,
कौन कहेगा साले तेरे joke पे हंसी नहीं आई ,
कौन पीछे से बुला के कहेगा ..आगे देख भाई .
अचानक बिन मतलब के किसी को भी देख कर पागलों की तरह हँसना ,
न जाने ये फिर कब होगा .
दोस्तों के लिए प्रोफ़ेसर से कब लड़ पाएंगे ,
क्या हम ये फिर कर पाएंगे ,
कौन मुझे मेरे काबिलियत पर भरोसा दिलाएगा ,
और ज्यादा हवा में उड़ने पर ज़मीन पे लायेगा ,
मेरी ख़ुशी में सच में खुश कौन होगा ,
मेरे गम में मुझ से ज्यादा दुखी कौन होगा ...
कह दो दोस्तों ये दुबारा कब होगा ....????
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मुकुल सिन्हा
आगे के सपने सजा रखे थे ना जाने कबसे .
बड़े उतावले थे यहाँ से जाने को ,
ज़िन्दगी का अगला पड़ाव पाने को .
पर ना जाने क्यों ..दिल में आज कुछ और आता है ,
वक़्त को रोकने का जी चाहता है .
जिन बातों को लेकर रोते थे आज उन पर हंसी आती है ,
न जाने क्यों आज उन पलों की याद बहुत आती है
कहा करते थे ..बड़ी मुश्किल से चार साल सह गया ,
पर आज क्यों लगता है की कुछ पीछे रह गया .
न भूलने वाली कुछ यादें रह गयी ,
यादें जो अब जीने का सहारा बन गयी .
मेरी टांग अब कौन खींचा करेगा ,
सिर्फ मेरा सर खाने कौन मेरा पीछा करेगा .
जहां 200 का हिसाब नहीं वहाँ 2 रूपए के लिए कौन लडेगा ,
कौन रात भर साथ जग कर पड़ेगा ,
कौन मेरे नए नए नाम बनाएगा .
में अब बिना मतलब किससे लडूंगा ,
बिना topic के किस्से फालतू बात करूंगा ,
कौन फ़ैल होने पर दिलासा दिलाएगा ,
कौन गलती से नंबर आने पर गालियाँ सुनाएगा .
रेडी पर चाय किस के साथ पियूंगा ,
वो हसीं पल अब किस के साथ जियूँगा ,
ऐसे दोस्त कहाँ मिलेंगे जो खाई में भी धक्का दे आयें ,
पर फिर तुम्हें बचाने खुद भी कूद जायें .
मेरे गानों से परेशान कौन होगा ,
कभी मुझे किसी लड़की से बात करते देख हैरान कौन होगा ,
कौन कहेगा साले तेरे joke पे हंसी नहीं आई ,
कौन पीछे से बुला के कहेगा ..आगे देख भाई .
अचानक बिन मतलब के किसी को भी देख कर पागलों की तरह हँसना ,
न जाने ये फिर कब होगा .
दोस्तों के लिए प्रोफ़ेसर से कब लड़ पाएंगे ,
क्या हम ये फिर कर पाएंगे ,
कौन मुझे मेरे काबिलियत पर भरोसा दिलाएगा ,
और ज्यादा हवा में उड़ने पर ज़मीन पे लायेगा ,
मेरी ख़ुशी में सच में खुश कौन होगा ,
मेरे गम में मुझ से ज्यादा दुखी कौन होगा ...
कह दो दोस्तों ये दुबारा कब होगा ....????
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मुकुल सिन्हा
तेरी वजह से में प्यारा हूँ
किसे बाहों में ले जिंदगी
हतप्रभ है , हैरान है।
शिशु की मुस्कान सी मासूम भले
पर ख़ुद मृत्यू की मेहमान है।
अनजानी सी सुगंध लिए
झूमती है , गाती है।
सावन के हिंडोले पर हवा से
बतियाती है , इतराती है।
महबूबा हो जैसे , बावरी हो अपने ढोला की
साँसों की सरगम पे सूप से दिनों को झटकती
गाँव की गोरी जैसी अल्हड
गीतों से अपने आप को दुनिया को सुनाती
ऐ जिंदगी
समझ नही आता तुझे सलाम करूँ
या तरस जताऊं
नहीं जानता, केवल यही कहना है तुझसे
तेरी गोद में मैं बैठा हूँ
और तेरे साजन से मिलना नहीं चाहता मैं
अंश बने रहने की इच्छा है तेरे वजूद का
क्यूँकि तू खूबसूरत है, इसीलिए शायद
मैं भी थोड़ा सा प्यारा हूँ ।
हतप्रभ है , हैरान है।
शिशु की मुस्कान सी मासूम भले
पर ख़ुद मृत्यू की मेहमान है।
अनजानी सी सुगंध लिए
झूमती है , गाती है।
सावन के हिंडोले पर हवा से
बतियाती है , इतराती है।
महबूबा हो जैसे , बावरी हो अपने ढोला की
साँसों की सरगम पे सूप से दिनों को झटकती
गाँव की गोरी जैसी अल्हड
गीतों से अपने आप को दुनिया को सुनाती
ऐ जिंदगी
समझ नही आता तुझे सलाम करूँ
या तरस जताऊं
नहीं जानता, केवल यही कहना है तुझसे
तेरी गोद में मैं बैठा हूँ
और तेरे साजन से मिलना नहीं चाहता मैं
अंश बने रहने की इच्छा है तेरे वजूद का
क्यूँकि तू खूबसूरत है, इसीलिए शायद
मैं भी थोड़ा सा प्यारा हूँ ।
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