Thursday, September 16, 2010

मैंने देखा, तूने देखा?

अँधेरे में पसरती हैवानियत को किसने देखा
अपनों के हाथों लुटती अस्मत को किसने देखा

पाल नहीं सकते तो औलादें करने की क्या जरूरत,
कल कूड़ेदान में पड़ी मासूमियत को सबने देखा

मुफलिसी का सबब देकर गुनाह ठीक नहीं,
एक गिलहरी को पाते अज़मत आदम ने देखा

सेंकती थी नरम रोटियाँ, चूल्हे पे वो मुस्कुराके,
तवे से टकराती उन उँगलियों की अज़ियत को हमने देखा

औरत होकर औरत पे सितम तो बेईमानी हुई,
दहेज़ की लपट में सिसकती इंसानियत को तूने देखा?

वो माँ है, बेटी भी, दोस्त भी, बहन भी और संगिनी भी,
समझे वोही 'रोबिन', घर में खनकती इस कुदरत को जिसने देखा


2 comments:

  1. काश अपनों के हाँथ लुटाती अस्मत को सब कह पाते,
    तभी कूड़ेदान में फेंकते मासूमियत को उनके हाँथ कंपकपाते
    आदम की जगह जो कोई और होते,
    तो गिलहरी को पाते आज़म वही देख पाते...
    उसे उंगलियाँ जलने का गम नहीं
    वो तो रोटियाँ परोस कर सुखी है
    ओर्तों के बीच ये दुश्मनी देख
    न जाने कितने ह्रदय दुखी हैं...
    यदि यही बात समझ जाते सब, तो
    न सिर्फ 'रोबिन' बल्कि वो भी खुदा की उस नियामत को देख पाते...

    आपकी कविता पढ़कर बुत अच्छा लगा, इसलिए रोक नहिपायी खुद को... if mistaken, then so sorry... please don't mind it... but what you wrote is simple great...

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  2. jus touched my heart .... lucv this poem

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