प्रकृति की विरह वेदना,
मानव कब समझ पाया है।
स्व-चेतना के मदांध में,
अल्प-ज्ञान को विराट जोहकर
केवल स्वार्थ पूर्ति हेतु
प्रकृति को नष्ट-भ्रष्ट किया है।
परिवर्तन को दैवीय कोप मानकर
एक कल्पित जगत में
सदैव मानव जिया है।
मूल्य समझने होंगे
विश्वास पाना होगा
फ़िर से
प्रकृति का
क्यूँकि प्रकृति माँ है
और माँ अधिक काल तक कुपित ऩही रहती !!
No comments:
Post a Comment