मेरी कोशिश है कि मैं बदलूँ
रेत घुले पानी की तरह ठहरूं
और निथर जाऊं
आज की धुंधली बयार को छोडूँ
और निखर जाऊं ।
मैं एक घाट का पानी
जाने कितने टीलों और
खेतों की मिट्टी से गुज़रकर
बह रहा हूँ
या बहने की कोशिश कर रहा हूँ,
नहीं जानता।
कितना धुआं एवं धसक लिए
ये हवा चल रही है
और मुझमें घुल रही है ।
रेत भाँति बैठा तो झोंका आया
हालात वही,
कुआँ फांद गया पर आगे
गहरी अँधियारी खाई ।
यह अकारण नहीं होता
इन् सबका सरोकार है मुझसे,
क्योंकि मैं समाज का
एक खामोश पुर्जा हूँ,
और ये हवा भी सामाजिक है ।
पर अब मैं बदलूँगा, निथरूंगा,
याद आया मैं तो पानी हूँ ।
समझो तो मैं अमृत,
वरना गरल भी हूँ।
देखो तो रास्ते जैसा टेढ़ा हूँ,
मानो तो सरल भी हूँ।
No comments:
Post a Comment