Monday, October 18, 2010

क़तील शिफ़ाई

पिछले कुछ दिनों में औरंगजेब खां क़तील शिफ़ाई साहब की कुछ ग़ज़लें पढने को मिली पढ़ते हुए
ख्याल बस उनकी ग़ज़लों में ही रहा और खुद को ये ग़ज़ल यहाँ शामिल करने से रोक नहीं पाया
क़तील साहब के गीत हों या ग़ज़लें, रूमानियत उनका एक अहम् हिस्सा रही है यह रूमानी अंदाज़ ज़मीन से जुड़ा हुआ है इसीलिए उनके लिखे हुए अलफ़ाज़ हमें अपने आस-पास नज़र आते हैं इसी रूमानियत की एक बानगी:

सावन के सुहाने मौसम में एक नार मिली बादल जैसी
बे-पंख उड़ानें लेती है, जो अपने ही आँचल जैसी

लाया है बनाकर उसको दुल्हन, ये जोबन, ये अलबेलापन,
इस उम्र में सर से पाँव तक लगती है ताजमहल जैसी

चेहरे पे सजे आईने हैं, या दो बेदाग़ नगीने हैं,
किस झील से आई हैं धुलकर ये आँखें नीलकमल जैसी

जो उसे देखे वह खो जाए, खो जाए तो शायर हो जाए,
उसका अंदाज़ है गीतों-सा, उसकी आवाज़ ग़ज़ल जैसी

वह ऐसे 'क़तील' अब याद आये, सपना जैसे कोई दुहराए,
मैं आज भी उसको चाहता हूँ, पर बात कहाँ वह कल जैसी

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