ख्याल बस उनकी ग़ज़लों में ही रहा और खुद को ये ग़ज़ल यहाँ शामिल करने से रोक नहीं पाया।
क़तील साहब के गीत हों या ग़ज़लें, रूमानियत उनका एक अहम् हिस्सा रही है। यह रूमानी अंदाज़ ज़मीन से जुड़ा हुआ है इसीलिए उनके लिखे हुए अलफ़ाज़ हमें अपने आस-पास नज़र आते हैं। इसी रूमानियत की एक बानगी:
बे-पंख उड़ानें लेती है, जो अपने ही आँचल जैसी।
लाया है बनाकर उसको दुल्हन, ये जोबन, ये अलबेलापन,
इस उम्र में सर से पाँव तक लगती है ताजमहल जैसी।
चेहरे पे सजे आईने हैं, या दो बेदाग़ नगीने हैं,
किस झील से आई हैं धुलकर ये आँखें नीलकमल जैसी।
जो उसे देखे वह खो जाए, खो जाए तो शायर हो जाए,
उसका अंदाज़ है गीतों-सा, उसकी आवाज़ ग़ज़ल जैसी।
वह ऐसे 'क़तील' अब याद आये, सपना जैसे कोई दुहराए,
मैं आज भी उसको चाहता हूँ, पर बात कहाँ वह कल जैसी।
No comments:
Post a Comment